पितृपक्ष विशेष में आज हम जानेंगे कि संसार में किसी भी प्राणी के मरने के बाद उसका तर्पण क्यों किया जाता है? तर्पण करने से मृतक के ऊपर क्या प्रभाव पड़ता है।
मृतक का तर्पण
जो संसार में आया है उसको एक दिन संसार को छोड़कर जाना पड़ेगा यह सत्य है इसे मानव जानता तो है पर स्वीकार नहीं करना चाहता। सनातन धर्म में मनुष्य के जीवन को 16 संस्कारो में विभक्त किया जाता है जिसमे सोलुवा संस्कार अंतिम संस्कार है जिसे मृतक के पुत्र द्वारा किया जाता है। यदि मृतक का अंतिम संस्कार पूर्ण विधान से न किया जाए तो जीवात्मा को मुक्ति नहीं मिलती है।
इसीलिए सनातन कॉल से ही ये नियम प्रजापति दक्ष ने बनाया था की जब भी कोई प्राणी संसार में मरेगा तो उसका तर्पण करना अनिवार्य होगा। विधि विधान से किया गया तर्पण जीवात्मा को सद्गति प्रदान करने में सक्षम होता ह्यै।
मनुस्मृति में तर्पण
मनुस्मृति में तर्पण को पितृ-यज्ञ बताया गया है और सुख-संतोष की वृद्धि हेतु तथा स्वर्गस्य आत्माओं की तृप्ति के लिए तर्पण किया जाता है। तर्पण का अर्थ पितरों का आवाहन, सम्मान और क्षुधा मिटाने से ही है। इसे ग्रहण करने के लिए पितर अपनी संतानों के द्वार पर पितृपक्ष में आस लगाए खड़े रहते हैं। तर्पण में पूर्वजों को अर्पण किए जाने वाले जल में दूध, जौ, चावल, तिल, चंदन, फूल मिलाए जाते हैं, कुशाओं के सहारे जल की छोटी-सी अंजलि मंत्रोच्चारपूर्वक डालने मात्र से वे तृप्त हो जाते हैं। जब जलांजलि श्रद्धा कृतज्ञता, सद्भावना, प्रेम, शुभकामनाओं की भावना के साथ दी जाती है, तो तर्पण का उद्देश्य पूरा होता हैं और पितरों को तृप्ति मिलती है। उल्लेखनीय है कि पितृतर्पण उसी तिथि को किया जाता है, जिस तिथि को पूर्वजों का परलोकगमन हुआ हो। जिन्हें पूर्वजों की मृत्युतिथि याद न रही हो, वे आश्विन कृष्ण अमावस्या यानी सर्वपितृमोक्ष अमावस्या को यह कार्य करते हैं, ताकि पितरों को मोक्षमार्ग दिखाया जा सके। लोगों में यह मान्यता प्रचलित है कि जब तक मृत आत्माओं के नाम पर वंशजों द्वारा तर्पण नहीं किया जाता, तब तक आत्माओं को शांति नहीं मिलती। वे इधर-उधर भटकती रहती है।तर्पण कितने प्रकार के होते हैं?
हमारी श्राद्धप्रक्रिया में जो 6 तर्पणकृत्य (देवतर्पण, ऋषितर्पण, दिव्यमानवतर्पण, दिव्यपितृतर्पण, यमतर्पण और मनुष्यपितृतर्पण) हैं), इनके पीछे भिन्न-भिन्न दार्शनिक पक्ष बताए गए हैं! देवतर्पण के अंतर्गत जल, वायु, सूर्य, अग्नि, चंद्र, विद्युत एवं अवतारी ईश्वर अंशों की मुक्त आत्माए आती हैं, जो मानवकल्याण हेतु निःस्वार्थभाव से प्रयत्नरत हैं।
ऋषितर्पण के अंतर्गत कुछ विषिस्ट ऋषि आते हैं जैसे वसिष्ठ, चरक, दधीचि, सुश्रुत, व्यास, नारद, विश्वामित्र, अत्रि, कात्यायनी, याज्ञवल्क्य पाणिनि इत्यादि। इन महानुभावो के प्रति मानव का अपनी श्रद्धा व्यक्त करने का नाप ही ऋषि तर्पण है।
दिव्यमानवतर्पण के अंतर्गत जिन्होंने लोकमंगल के लिए त्याग-बलिदान किया है, जैसे-पांडव, महाराणा प्रताप, राजा हरिश्चंद्र, जनक, शिवि, शिवाजी, भामाशाह, गोखले, तिलक आदि महापुरुषों के प्रति कृतज्ञता की अभिव्यक्ति की जाती है।
दिव्यपितृतर्पण के अंतर्गत जो अनुकरणीय परंपरा एवं पवित्र प्रतिष्ठा की संपत्ति छोड़ गए हैं, उनके प्रति कृतज्ञता हेतु तर्पण किया जाता है।
यमतर्पण जन्म-मरण की व्यवस्था करने वाली शक्ति के प्रति और मृत्यु का बोध बना रहे, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए करते हैं। मनुष्यपितृतर्पण के अंतर्गत परिवार से संबंधित सभी परिजन, निकट संबंधी, गुरु, गुरु-पत्नी, शिष्य, मित्र आते हैं, यह उनके प्रति श्रद्धा भाव है।
इस प्रकार तर्पणरूपी कर्मकांड के माध्यम से हम अपनी सद्भावनाओं को जाग्रत करते हैं, ताकि वे सत्प्रवृत्तियों में परिणत होकर हमारे जीवनलक्ष्य में सहायक हो सकें।
सारांश
अतः सारांश में हम कह सकते हैं तर्पण क्रिया मनुष्य के जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्रिया है जो उसे मौका देती है अपने पितरों और पूर्वजों के प्रति अपनी कृतज्ञता को वर्णित करने का। प्रत्येक वर्ष पितृपक्ष में जिस दिन पूर्वजों की स्वर्गलोक गमन की तिथि आती है तब पितृपक्ष में उनके लिए तर्पण करने से उन्हें शांति, मुक्ति और प्रसन्नता प्राप्त होती है। जब पितृ अपनी सन्तानो के द्वारा किये गए तर्पण से तृप्त हो जाते हैं तब वे अपनी संतानों को आशीर्वाद देते हैं और जिनके आशीर्वाद के फल स्वरुप उनका परिवार, उनका कुल फलता-फूलता रहता है और सुख, समृद्धि और वैभव प्राप्त करता है। जो भी प्राणी पितृ दोष से मुक्ति पाना चाहते है उन्हें सदैव तर्पण क्रिया करनी चाहिए और सनातन धर्म का अनुसरण करना चाहिए।
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