पितृपक्ष विशेष: पिंडदान करने की परंपरा क्यों?
पितृपक्ष विशेष में जानेंगे की पिंडदान करने की परंपरा क्यों है और इसके क्या लाभ हैं? क्या पिंडदान अनिवार्य होता है? पिंडदान न करने से क्या होता है?
पिंडदान क्यों करना चाहिए?
हिंदूधर्म में पिंडदान की परंपरा वेदकाल से ही प्रचलित है। मरणोपरांत पिंडदान किया जाता है। दस दिन तक दिए गए पिंडों से शरीर बनता है। क्षुधा का जन्म होते ही ग्यारहवें व बारहवें दिन सूक्ष्मजीव श्राद्ध का भोजन करता है। ऐसा माना जाता है कि तेरहवें दिन वह यमदूतों के इशारे पर नाचता हुआ यमलोक चला जाता है। पितरों के मोक्ष के लिए यह एक अनिवार्य परंपरा है और इसका बहुत अधिक धार्मिक महत्व है। योगवासिष्ठ में बताया गया है-
पिंडदानादि पाकर पितृगण प्रसन्न होकर सुख-समृद्धि का आशीर्वाद देते हैं और पितृलोक को लौट जाते हैं। जो पुत्र इसे नहीं करते, उनके पितर उन्हें शाप भी देते हैं। कहा जाता है कि सर्वप्रथम सतयुग में ब्रह्माजी ने गया में पिंडदान किया था, तभी से यहां यह परंपरा ज़ारी है। पितृपक्ष में पिंडदान का विशेष महत्त्व है। पिंडदान के लिए जौ या गेहूं के आटे में तिल या चावल का आटा मिलाकर इसे दूध में पकाते हैं और शहद तथा घी मिलाकर लगभग 100 ग्राम के 7 पिंड बनाते हैं। मृत आत्मा के लिए एक पिंड और 6 पिंड के लिए समर्पित तर्पण करना होता है।
प्राचीनकाल में पिंडदान का कार्य वर्षभर चलता था। यात्री 360 वेदियों पर गेहूं, जौ के आटे में खोया मिलाकर तथा अलग से बालू के पिंड बनाकर दान करते थे। अब विष्णुमंदिर, अक्षयवट, फल्गू और पुनपुन नदी, रामकुंड, सीताकुंड, ब्रह्म-मंगलगौरी, कागवलि, वैतरणी तथा पंचाय तीर्थों सहित 48 वेदियां शेष हैं, जहां पिंडदान किया जाता है।
वायुपुराण में वर्णित गया-माहात्म्य कथानुसार ब्रह्मा ने सृष्टि रचते समय गयासुर नामक एक दैत्य को उत्पन्न किया। उसने कोलाहल पर्वत पर घोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर विष्णु ने वर मांगने को कहा। इस पर गयासुर ने वर मांगा, 'मेरे स्पर्श से सुर, असुर, कीट, पतंग, पापी, ऋषि-मुनि, प्रेत आदि पवित्र होकर मुक्ति प्राप्त करें।' उसी दिन से गयासुर के दर्शन और स्पर्श से सभी जीव मुक्ति प्राप्त कर वैकुंठ जाने लगे।
कूर्मपुराण में कहा गया है-
कृत्वा पिण्डप्रदानं तु न भूयो जायते नरः ॥
सकृद् गयाभिगमनं कृत्वा पिण्डं ददाति यः ।
दोनों के कुल की सात पीढ़ियों का उद्धार कर स्वयं भी परमगति को प्राप्त करते हैं।
पिंडदान का अधिकार पुत्र के या वंश के किसी अन्य पुरुष को ही होता है। किंतु 1985 में मिथिला के पंडितों द्वारा स्त्रियों को भी पिंडदान का अधिकार दे दिया गया है। इस सम्बन्ध में देवी सीता द्वारा अपने ससुर दशरथ जी के लिए पिंडदान करने की कथा प्रचलित है।
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