एकादशी व्रत कथा ब्लॉग एकादशी और कई पौराणिक कथाओं के बारे में विस्तार से बताता है। यह ब्लॉग सनातन धर्म से जुड़े हर रहस्य को उजागर करने में सक्षम है। एकादशी ब्लॉग के माध्यम से हम आप सभी तक पूरे वर्ष में पड़ने वाली सभी 26 एकादशी की कथा को विस्तार से लेकर आए है। इस ब्लॉग के माध्यम से आप सभी को सनातन धर्म से जुड़ने का एक अवसर प्राप्त होने जा रहा है।
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पिंडदान, श्राद्ध आदि कर्म पुत्र द्वारा ही क्यों?
आज के इस लेख के माध्यम से आपको ज्ञान होगा कि पितृपक्ष में पुत्र द्वारा किए गए श्राद्ध से पितरों को प्रसन्न का क्यों होती है? पुत्र के द्वारा श्राद्ध किए जाने से क्या लाभ है?
पुत्र द्वारा ही श्राद्ध
आधुनिक समय में लिंग भेद को नहीं माना जाता और हमारा भी यही मानना है कि पुत्र या पुत्री में कोई फर्क नहीं होता। पुत्र और पुत्री समान रूप से अपने परिवार और समाज के प्रेम के अधिकारी होते हैं। जिस प्रकार माता-पिता का संबंध उनके पुत्र से होता है ठीक उसी प्रकार पुत्री से भी प्रेमपूर्ण सम्बन्ध होता है।
संतान के विषय में लड़का और लड़की का कोई भेद नहीं होता और न ही होना चाहिए। फिर भी हमारे सनातन धर्म में हमारे शाश्त्र और वेद इस बात का प्रमाण देते है की पित्र पक्ष में श्राद्ध कर्म करने का पहला अधिकारी पुत्र ही होता है।
ईश्वर ने जो भी नियम बनाये उन सभी नियमो को शास्त्रों में समाहित कर दिया जिससे मनुष्य शास्त्रोक्त रीति से जीवन के प्रत्येक कर्म को पूर्ण निष्ठां के साथ कर सके। भगवान् श्री कृष्ण ने भी गीता में अर्जुन को समझाते हुवे कहा है की हे पार्थ,मनुष्य को कौन से कर्म करने चाहिए और कौन से कर्म नहीं करने चाहिए, इसका ज्ञान प्राणी को शास्त्रों की शरण में जाने से होगा क्युकी शास्त्र ही प्रमाण है उस नियम के जो ईश्वर ने बनाये और शास्त्रों में संकलित किये गए।
आचार्य वसिष्ठ ने पुत्रवान् व्यक्ति की महिमा के संबंध में कहा है-
और आगे भी बताया है-
मनु महाराज का वचन है-
शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि पुत्र वाले धर्मात्माओं की कभी दुर्गति नहीं होती। पुत्र का मुख देख लेने से पिता पितृऋण से मुक्त हो जाता है। पुत्र द्वारा प्राप्त श्राद्ध से मनुष्य स्वर्ग में जाता है। 'पूत' का अर्थ है-पूरा करना । त्र का अर्थ है-न किए से भी पिता की रक्षा करना। पिता अपने पुत्र द्वारा इस लोक में स्थित रहता है। धर्मराज यमराज के मतानुसार जिसके अनेक पुत्र हों, तो श्राद्ध आदि पितृ-कर्म तथा वैदिक (अग्निहोत्र आदि) कर्म ज्येष्ठ पुत्र के करने से ही सफल होता है। भाइयों को अलग-अलग पिंडदान, श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए-
सारांश
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