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Showing posts from January, 2020

माघ शुक्ल पक्ष जया एकादशी व्रत कथा माहात्म्य सहित

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॥ अथ जया एकादशी माहात्म्य ॥ धर्मराज युधिष्ठिर बोले-हे भगवान! आपने माघ माह की कृष्ण पक्ष की षटतिला एकादशी का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है। अब कृपा कर माघ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी की कथा का वर्णन कीजिये। इस एकादशी का नाम, विधि और देवता क्या और कौन सा है? श्रीकृष्ण भगवान बोले-हे राजन! माघ माह की शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम जया है। इस एकादशी व्रत से मनुष्य ब्रह्महत्या के पाप से छूट जाते हैं और अन्त में उनको स्वर्ग प्राप्ति होती है। इस व्रत से मनुष्य कुयोनि अर्थात भूत, प्रेत, पिशाच आदि की योनि से छूट जाता है। अतः इस एकादशी के व्रत को विधि पूर्वक करना चाहिये। हे राजन! मैं एक पौराणिक कथा कहता हूँ। जया एकादशी व्रत कथा एक समय की बात है जब देवराज इंद्र स्वर्गलोक में अन्य देवताओं के साथ गायन और नृत्य का आनंद ले रहे थे। उस सभा में गंदर्भो में प्रसिद्ध पुष्पवन्त नाम का गंदर्भ अपनी पुत्री के साथ उपस्थित था।  देवराज इंद्र की सभा में चित्रसेन की पत्नी मलिन अपने पुत्र के साथ जिसका नाम पुष्पवान था और पुष्पवान भी अपने लड़के माल्यवान के साथ उपस्थित थे। उस समय गंधर्भो में सुंदरता से भी सुन्दरतम स्त्री जि

ध्यान क्या है ? - परमानन्द गिरी जी महाराज | Dhyan kya hai - Parmanand Giri Ji Maharaj

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ध्यान क्या है ? - परमानन्द गिरी जी महाराज | Dhyan kya hai - Parmanand Giri Ji Maharaj साधना की दृस्टि से ध्यान सुगम है।ध्यान में किसी धारणा की आवश्यकता नहीं है। ध्यान में अपने संस्कारो की आवश्यकता नहीं है। ध्यान में हमें अपनी समझ लगाने और योजना बनाने की भी आवश्यकता नहीं है। ध्यान बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया है।  अब मन में यह  प्रश्न उठता है की ध्यान क्या है ?  ध्यान  सावधानी है।   ध्यान का तात्पर्य परमात्मा का स्मरण करना है अर्थात उस चैतन्य परम पिता परमात्मा ,साक्षी, उस परब्रह्म का स्मरंण करना है। जब ध्यान साधना के समय साधक के मन के भीतर न कोई द्वन्द हो न ख़याल हो , उस अवस्था को ही ध्यान की अवस्था कहा जाता है।  भीतर कोई भी चुनाव की स्तिथि न हो और यदि हो तो केवल साक्षित्व भाव मात्र। आप यू समझ सकते है की निर्द्वँदता की स्तिथि को ही परम ध्यान की स्तिथि कहते है। इस तथ्य को पूर्ण रूप से आप तभी समझ सकते है जब आप ध्यान करना आरम्भ कर देंगे। यहां मैंये भी बता देना उचित समझता हूँ की ध्यान और वेदांत एक दूसरे के पूरक है। जो साधक केवल सुनते है और कभी अंतर्मुखी होकर नहीं ध्यान नहीं करते उनको सु