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Tulsi Mala: तुलसी की माला किस दिन पहने? तुलसी की माला कब नही पहनी चाहिए?

Tulsi Mala: तुलसी की माला किस दिन पहने? तुलसी की माला कब नही पहनी चाहिए?  तुलसी सिर्फ एक पौधा नहीं अपितु सनातन धर्म में तुलसी को देवी अर्थात माता का स्थान प्रदान किया गया है। तुलसी के महत्व की बात करें तो बिन तुलसी के भगवान भोग भी स्वीकार नहीं करते, ऐसा हमारे शास्त्रों में लिखा है। तुलसी माला का आध्यात्मिक महत्व हिंदू और बौद्ध परंपराओं में गहराई से निहित है। यहाँ कुछ प्रमुख पहलू हैं: देवताओं से संबंध भगवान विष्णु और भगवान कृष्ण: तुलसी को हिंदू धर्म में एक पवित्र पौधा माना जाता है, जो अक्सर भगवान विष्णु और उनके अवतारों से जुड़ा होता है, जिसमें भगवान कृष्ण भी शामिल हैं। माना जाता है कि तुलसी माला पहनने के लिए उनके आशीर्वाद और सुरक्षा को आकर्षित करने के लिए माना जाता है। पवित्रता और भक्ति का प्रतीक शुद्धता: तुलसी संयंत्र अपनी पवित्रता के लिए श्रद्धा है। तुलसी माला पहनने से विचारों, शब्दों और कार्यों में पवित्रता बनाए रखने की प्रतिबद्धता का प्रतीक है। भक्ति: यह आध्यात्मिक प्रथाओं के प्रति समर्पण और समर्पण का एक निशान है। भक्तों ने मंत्रों और प्रार्थनाओं का जप करने के लिए...

पूर्वजों का श्राद्धकर्म करना आवश्यक क्यों ?

पितृपक्ष अर्थात वह समय जो हमे उनके लिए कुछ करने का अवसर प्रदान करता है जिनकी वजह से आज हमारा अस्तित्व है अर्थात हमारे पूर्वज। यदि हमारे पूर्वज न होते तो आज हम भी ना होते, न ही ये परिवार होता, न यह सुख, समृद्धि, वैभव और ये जीवन ही होता। पितृ पक्ष में पितरो की अपनी सन्तानो से आशा और उनकी सन्तानो के कर्तवो की समस्त पौराणिक जानकारी आज आपको इस लेख के माध्यम से प्राप्त होगी। 

Pitra Paksha विशेष महत्त्व | Pitru Paksha Rituals

ब्रह्मपुराण के मतानुसार अपने मृत पितृगण के उद्देश्य से पितरों के लिए श्रद्धा पूर्वक किए जाने वाले कर्म विशेष को श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध से ही श्रद्धा कायम रहती है। कृतज्ञता की भावना प्रकट करने के लिए किया हुआ श्राद्ध समस्त प्राणियों में शांतिमयी सद्भावना की लहरें पहुंचाता है। ये लहरें, तरंगें न केवल जीवित को बल्कि मृतक को भी तृप्त करती हैं। श्राद्ध द्वारा मृतात्मा को शांति सद्गति, मोक्ष मिलने की मान्यता के पीछे यही तथ्य है। इसके अलावा श्राद्धकर्ता को भी विशिष्ट फल की प्राप्ति होती है। 
मनुस्मृति में लिखा है-

यदाति विधिवत् सम्यक् श्रद्धासमन्वितः । 
तत्तत् पितॄणां भवति परत्रानन्तमक्षयम् ॥

अर्थात् मनुष्य श्रद्धावान होकर जो-जो पदार्थ अच्छी तरह विधिपूर्वक पितरों को देता है, वह-वह परलोक में पितरों को अनंत और अक्षय रूप में प्राप्त होता है।
ब्रह्मपुराण में कहा गया है कि आश्विनमास के कृष्णपक्ष में यमराज सभी पितरों को अपने यहां से छोड़ देते हैं, ताकि वे अपनी संतान से श्राद्ध के निमित्त भोजन ग्रहण कर लें। इस माह में श्राद्ध न करने वालों के अतृप्त पितर उन्हें शाप देकर पितृलोक को चले जाते हैं। इससे आने वाली पीढ़ियों को भारी कष्ट उठाना पड़ता है। इसे ही पितृदोष कहते हैं। पितृजन्य समस्त दोषों की शांति के लिए पूर्वजों की मृत्युतिथि के दिन श्राद्धकर्म किया जाता है। इसमें ब्राह्मणों को भोजन कराकर तृप्त करने का विधान है। श्राद्ध करने वाले व्यक्ति को क्या फल मिलता है, इस बारे में गरुड़पुराण में कहा गया है-
आयुः पुत्रान् यशः स्वर्ग कीर्ति पुष्टि बलं श्रियम् । 
पशून् सौख्यं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात् ॥

अर्थात् श्राद्धकर्म करने से संतुष्ट होकर पितर मनुष्यों के लिए आयु, पुत्र, यश, मोक्ष, स्वर्ग, कीर्ति,  पुष्टि, बल, वैभव, पशुधन, सुख, धन और धान्यवृद्धि का आशीष प्रदान करते हैं। 
यमस्मृति 36.37 में लिखा है कि पिता, दादा और परदादा ये तीनों ही श्राद्ध की ऐसे आशा करते हैं, जैसे वृक्ष पर रहते हुए पक्षी वृक्षों में फल लगने की आशा करते हैं। पितरों को अपनी संतानों से आशा रहती है कि उनकी संताने अपने पितरों के लिए खीर, शहर, दूध इत्यादि ने श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करेंगे। 

देवताओं के लिए जो हव्य और पितरों के लिए जो कव्य दिया जाता है, ये दोनों देवताओं और पितरों को कैसे मिलता है, इसके संबंध में यमराज ने अपनी स्मृति में कहा है-

यावतो ग्रसते ग्रासान् हव्यकव्येषु मन्त्रवित् । 
तावतो ग्रसते पिण्डान् शरीरे ब्रह्मणः पिता ॥
अर्थात् मंत्रवेत्ता ब्राह्मण श्राद्ध के अन्न के जितने कौर अपने पेट में डालता है, उन कौरों को श्राद्धकर्ता का पिता ब्राह्मण के शरीर में स्थित होकर पा लेता है। अथर्ववेद में पितरों तक सामग्री पहुंचाने का अलग ही रास्ता बताया गया है-पितरों के लिए श्राद्ध करने वाला व्यक्ति अलग से आहुति देते समय अग्नि से प्रार्थना करता है-
त्वम॑ग्न ईडि॒तोजा॑तवे॒दोऽवा॑ड्ढ॒व्यानि॑ 
सुर॒भीणि॑ कृ॒त्वा। प्रादाः॑ पि॒तृभ्यः॑

अर्थात् हे स्तुत्य अग्निदेव! हमारे पितर जिस योनि में जहां रहते हैं, तू उनको जानने वाला है। हमारा प्रदान किया हुआ स्वधाकृत हव्य सुगंधित बनाकर पितरों को प्रदान कर। हवनकुंड में देवताओं के लिए जिस हवनसामग्री से आहुति डाली जाती है, उसे हव्य कहते हैं तथा पितरों के लिए जो हवनसामग्री डाली जाती है, उसे कव्य कहते हैं। मृतक चाहे आयु में बड़ा हो या छोटा उसे पितर ही कहते हैं।
ब्राह्मण को पृथ्वी का देव 'भूदेव' कहा गया । अतः ब्राह्मण की जठराग्नि भी यज्ञाग्नि ही कहलाती है। जिस प्रकार यज्ञ की अग्नि 'कव्य' को पितरों तक पहुंचाने का कार्य करती है, उसी प्रकार ब्राह्मण की जठराग्नि भी कव्य को पितरों तक पहुंचाने का कार्य करती है। इसीलिए ब्राह्मणों को भोजन कराने व दक्षिणा देकर संतुष्ट करने का प्रावधान है। हवनकुंड में डाला 'कव्य' या ब्राह्मण-भोजन के रूप में खिलाया गया 'कव्य' पितरों को उसी रूप में मिलता है, जिस रूप में वे जिस योनि में रहते है। उदाहरणार्थ-यदि पितर पशुरूप में हैं, तो वह कव्य (श्राद्धान्न) घास के रूप में, यदि पक्षी रूप में हैं, तो फूल या कीड़े के रूप में मिलता है।
प्रत्येक वर्ष आने वाला पितृपक्ष प्राणी को अपने पितरों के प्रति अपनी श्रद्धा और अपने प्रेम को व्यक्त करने का एक माध्यम है। पितृपक्ष में अपने पितरों के निम्मित प्राणी जो भी सेवा करते हैं, उससे उनके पितृ तृप्त और संतुष्ट होते हैं क्योंकि संसार छोड़कर जाने के पश्चात प्राणियों के पितरों को उनसे आशा होती है कि उनकी संतान उन्हें पानी देगी अर्थात अपने जीवन काल में पितरो ने जो त्याग और प्रेम से अपने परिवार का पोषण किया था उसी तरह उनके संसार त्यागने के पश्चात् अब उनकी सन्तानो का कर्तव्य है की पितृपक्ष में सम्पूर्ण श्रद्धा के साथ पितरो का श्राद्ध करें। 

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