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सनातन धर्म में कुल कितने पुराण हैं?

सनातन धर्म के अनगिनत पुराणों का अनावरण पुराणों में समाहित गहन रहस्यों को उजागर करने की यात्रा पर निकलते हुए सनातन धर्म के समृद्ध ताने-बाने में आज हम सभी गोता लगाएंगे। प्राचीन ग्रंथों की इस खोज में, हम कालातीत ज्ञान और जटिल आख्यानों को खोजेंगे जो हिंदू पौराणिक कथाओं का सार हैं। पुराण ज्ञान के भंडार के रूप में कार्य करते हैं, जो सृष्टि, नैतिकता और ब्रह्मांड को नियंत्रित करने वाली ब्रह्मांडीय व्यवस्था के बारे में अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं। प्रत्येक पुराण किंवदंतियों, वंशावली और दार्शनिक शिक्षाओं का खजाना है जो लाखों लोगों की आध्यात्मिक मान्यताओं को आकार देना जारी रखते हैं। आइए हम कहानियों और प्रतीकात्मकता की भूलभुलैया से गुज़रते हुवे रूपक और रूपक की परतों को हटाकर उन अंतर्निहित सत्यों को उजागर करने का प्रयास करें जो सहस्राब्दियों से कायम हैं। हमारे साथ जुड़ें क्योंकि हम इन पवित्र ग्रंथों के पन्नों में मौजूद देवताओं, राक्षसों और नायकों के जटिल जाल को उजागर करने का प्रयास कर रहे हैं, जो मानव अस्तित्व का मार्गदर्शन करने वाले शाश्वत सिद्धांतों पर प्रकाश डालते हैं। हिंदू धर्म में पुराणों का म...

परमानंद जी महाराज ने बताया मन्त्र जाप कैसे करें

मन्त्र जाप- Parmanand Maharaj 

हिंदू धर्म में मंत्र जाप का बहुत महत्व है। शास्त्रों के मुताबिक, मंत्र का जाप करने से पहले और बाद में कुछ नियमों का पालन करना चाहिए।

साधकः- मन्त्र जाप कैसे करें? मन्त्र का अर्थ बतायें। 

महाराजश्रीः- कोई भी मन्त्र हो लगातार उसे श्वास के साथ बोलें। मान लो नमः शिवाय। क्योंकि जो कोई मन्त्र लिया होता है, उस मन्त्र को बताने के लिए गुरु मना कर देते हैं। तो मान लो "नमः शिवाय"। कई बार मेरा श्वास लेते में नमः शिवाय, नमः शिवाय..... (अनन्तबार) हो गया। ऐसे ही श्वास निकालते में हो गया।
और दूसरा होता है, दो भागों में, जैसे-राम-सीता, राधे-श्याम, सोऽहम्, जो दो भागों में बँटता है। आधा मन्त्र श्वास लेते में आधा मन्त्र श्वास निकालते में बोलते हैं। बोलते नहीं बल्कि केवल स्मरण करते हैं। जो जुबान या माला से करते हैं, वह जाप है, जो श्वास से करते हैं, वह अजपा है। केवल स्मरण, बोलना नहीं है। केवल शब्द का सुमिरन करना है।
ऐसे ही लोग 'सोऽहम्' का अर्थ पूछते हैं। सोऽहम् का अर्थ समझना है। जब तक हम सोऽहम् का अजपा जाप करते हैं, तब तक यह योग साधना है। और जब सोऽहम् का अर्थ क्या है? तब यह ज्ञान है। यह दोनों में चलता है। उपासना में कोई अर्थ जाने या न जाने। मन्त्रों का अभ्यास हो गया, मन एकाग्रचित होगा, पवित्र होगा, भाव मिलेगा, मन अच्छा बन जायेगा।
पर राम क्या है? अब यह समझना है। राम व्यापक है कि एक देशीय है? सब में एक। यह क्या है? और वह दिखता है, कि देखता है? या फिर वह रहस्य है? इसी तरह सोऽहम् में सो और अहम् है। तत्त्वमसि महावाक्य में तत् और त्वम् है। तत् माने ईश्वर, त्वम्, माने-जीव। ऐसे ही जिज्ञासा" जीवन रहस्य की कुंजी सोऽहम् में स अहम्, वह और मैं। ये दो हैं कि एक है? 'मैं' क्यों है और वो 'वह' क्यों कहलाता है, जबकि सब में व्यापक है। उसको समझना है और समझकर फिर चिन्तन करना है।
'सोऽहम्' या अन्य मन्त्र, उपासना और ज्ञान दोनों में काम आते हैं। उपासना की दृष्टि से ध्यान, भजन करना चाहिए, एकाग्र होना चाहिए, प्रसन्न होना चाहिए। उनकी याद में मन को गद्गद् होना चाहिए। ये उपासना है। और तब भी यदि लगे कि अच्छा तो बहुत लगता है पर हमें 'राम' नहीं मिले, अच्छा तो बहुत लगता है, पर हम 'ब्रह्म' से एक नहीं हुए। सोऽहम् करते-करते ब्रह्म से कोई एक थोड़े हो जाता है। समझ ही नहीं आयेगा। सिर्फ अपने-अपने मत का आग्रह है।
तो सः क्या है? अहम् क्या है? 'वह' क्या चीज है और 'मैं' क्या चीज ? उन दोनों (वह और मैं) में सत्य क्या है?
नोट-इसको गहराई पर इसलिए नहीं ले जाता कि जिन्होंने प्रक्रिया का अध्ययन नहीं किया है, उन्हें थोड़ी कठिनाई होगी।
इसी प्रकरण से सम्बन्धित एक प्रसंग-कई लोग गुरु बदलते रहते हैं। मेरे से भी पूछते हैं कि-

दुबारा (मन्त्र) ले सकते हैं या नहीं? 

तो हमने कहा कि ये तो मुझे पता है कि यदि तुम सफल हो जाते तो दुबारा की बात ही नहीं करते। लेकिन क्या तुम मेरा (मन्त्र) लेकर, सफल हो जाओगे? कोई गारण्टी है क्या? फिर तुम्हें तीसरा (गुरु) चाहिए, फिर चौथा.... तो गुरु बदलने की आदत अच्छी नहीं है। पर कोई सचमुच साधक है, समझ नहीं आती, तो किसी गुरु की सहायता लेना कोई अपराध नहीं है। हमारी समझ में, हमारे शिष्य किसी से पूछ सकते हैं। किसी के शिष्य मेरे से पूछ लें, तो उचित मार्ग दर्शन करना गलत नहीं है।, कोई हमारा सोचना यह तो नहीं है कि एक दूसरे की दुकान में धक्का देना है। अरे! उनके शिष्य रहकर मुझसे यदि कुछ पूछ जाओगे तो क्या कोई नुकसान हो जायेगा?
लेकिन प्रायः लोग क्या करते हैं, दूसरे के शिष्यों को यह कहकर कि ऐसा करो कि वहाँ मन्त्र ले लो। तो ये मुझे तो अच्छा नहीं लगता। जहाँ मैं बदल लेने के विरोध में नहीं हूँ, वहाँ बार-बार बदल लेने से भी, कहीं निष्ठा ही नहीं बन पायेगी। इसलिए मैं गुरु बदलने के पक्ष में नहीं हूँ। पर आवश्यकता है, तो जो कर रहे हो, उसी में हम सहायता करेंगे। उन्हीं को गुरु मानकर श्रद्धापूर्वक अभ्यास करो। यदि और आगे की बात करो तो 'गुरु' कोई देह होता ही नहीं; न मैं गुरु, न वह गुरु, न कोई गुरु। 'गुरु' तो वही विद्या है; उसको प्राप्त करो। वही गुरु है और सब 'देह' हैं।

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