सनातन धर्म में एकादशी के व्रत का जो महात्म हमारे पुराणों में बताया गया है उसके अनुसार संसार में एकादशी से बड़ा कोई दूसरा व्रत नहीं है। एकादशी का व्रत भगवान श्री हरि नारायण को सर्वाधिक प्रिय है। एकादशी का पावन व्रत जो भी मनुष्य करता है, भगवान श्री हरि की कृपा सिर्फ उसपर ही नहीं अपितु उसके पूरे कुटुंब पर बनी रहती है। आज हम आपको उसी पावन एकादशियों में से एक सफल एकादशी की पवित्र कथा सुनाने जा रहे है। इस कथा के श्रावण मात्र से आपका चित शांत और आत्मिक सुख की अनुभूति करने लगेगा।
॥ अथ सफला एकादशी महात्म्य ॥
श्रीयुधिष्ठिर बोले-हे भगवान! पौष मास के कृष्णपक्ष की एकादशी का क्या नाम है? इस दिन कौन से देवता की पूजा व विधि क्या है? यह सब समझाइये। श्रीकृष्ण भगवान बोले-हे राजन! मैं आपके प्रश्नों का उत्तर देता हूँ। दान देने वाले की अपेक्षा मैं व्रत करने वाले से प्रसन्न हूं।
अब आप इस एकादशी व्रत का माहात्म्य सुनिए। पौष माह के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम सफला है। इस एकादशी के देवता नारायण हैं। इसका पूर्वोक्त विधि अनुसार व्रत करना चाहिए और नारायणजी की पूजा करनी चाहिये। जो मनुष्य एकादशी व्रत तथा मेरा पूजन करते हैं वे धन्य हैं। सफला नाम की एकादशी में मुझे ऋतु के अनुकूल फल अर्पण करे। अर्थात नारियल, नींबू, अनार, सुपारी आदि और धूप, दीप, पुष्प आदि से मेरी सोलह प्रकार से पूजा करे। इस दिन दीपदान तथा रात्रि को जागरण करना चाहिये। इस एकादशी व्रत के समान यज्ञ, तीर्थ तथा दूसरा कोई भी व्रत नहीं है। मनुष्य को पांच सहस्त्र तपस्या करने से जो पुन्य मिलता है वह पुन्य भक्तिपूर्वक रात्रि जागरण सहित सफला एकादशी के व्रत करने से मिलता है।
हे राजन! अब आप सफल एकादशी की कथा ध्यान पूर्वक सुनिये । चम्पावती नगरी में एक महिष्मान राजा राज्य करता था। उसके चार पुत्र थे। इन पुत्रों में सबसे बड़ा लुमाक राजा का पुत्र महा पापी था। वह सदैव पर स्त्री गमन तथा वैश्याओं के यहाँ अपने पिता का धन नष्ट किया करता था। वह देवता, ब्राह्मण, वैष्णव आदि की निन्दा किया करता था। जब पिता को अपने बड़े पुत्र के बारे में समाचार ज्ञात हुए तब उसको अपने राज्य से निकाल दिया। जब लुम्पक सबके द्वारा त्याग दिया गया तब वह विचारने लगा कि अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? अन्त में वह दिन में वन में रहने लगा और रात को अपने पिता की नगरी में चोरी तथा अन्य कुकर्म करने लगा। जिस वन में वह रहता था वह भगवान को अत्यन्त प्रिय था। उस वन में एक बहुत पुराना पीपल का वृक्ष सब देवताओं का क्रीड़ा स्थल था। इसी वृक्ष के नीचे लुम्पक रहता था। कुछ दिनों के पश्चात् पौष माह के कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन वह वस्त्रहीन होने के कारण शीत से मूर्छित हो गया। रात्रि को न सो सका और उसके हाथ पैर अकड़ गये। उसे दिन वह रात्रि बड़ी कठिनता से बीती परन्तु सूर्यनारायण के उदय होने पर भी उसकी मूर्छा न गई।
सफला एकादशी के मध्यान्ह तक वह दुराचारी मूर्छित ही पड़ा रहा। जब सूर्य की गर्मी से उसे होश आया तो वह अपने स्थान से उठकर वन से भोजन की खोज में चल पड़ा। उस दिन वह जीवों को मारने में असमर्थ था इसलिये जमीन पर गिरे हुए फलों को लेकर पीपल के वृक्ष के नीचे आया। जब सूर्य भगवान अस्ताचल को प्रस्थान कर गये तब फलों को पीपल की जड़ के पास रख कहने लगा कि हे भगवान! इन फलों से आप ही तृप्त होवें ऐसा कहकर वह रोने लगा और रात्रि को उसे नींद न आई। इस महापापी के व्रत तथा रात्रि जागरण से
भगवान अत्यन्त प्रसन्न हुए और उसके समस्त पाप नष्ट हो गये। प्रातः ही एक दिव्य घोड़ा अनेकों सुन्दर वस्तुओं से सजा उसके सामने आ खड़ा हो गया। और आकाशवाणी हुई कि हे राजपुत्र! भगवान नारायण के प्रभाव से तेरे समस्त पाप नष्ट हो गये हैं अब तू अपने पिता के पास जाकर राज्य प्राप्त कर। लुम्पक ने जब ऐसी आकाशवाणी सुनी तो वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ और हे भगवान आप की जय हो। ऐसा कहता हुआ सुन्दर वस्त्रों को धारण कर अपने पिता के पास गया। उसने संपूर्ण कथा कह सुनाई और पिता ने अपना राजभार सौंप कर वन का रास्ता लिया।
अब लुम्पक शास्त्रानुसार राज्य करने लगा। उसके स्त्री पुत्र आदि भी परम भक्त बन गये। वृद्धावस्था आने पर वह अपने पुत्र को गद्दी दे भगवान का भजन करने के लिये वन में चला गया और अन्त में विष्णुलोक को गया।
भक्तिपूर्वक जो मनुष्य सफला एकादशी का व्रत करते हैं वे अन्त में मुक्ति पाते हैं। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक सफला एकादशी का व्रत नहीं करते हैं वे पूंछ और सींग से रहित पशु तुल्य हैं। सफला एकादशी के माहात्म्य का पठन व श्रवण से अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है।
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