॥ अथ पुत्रदा एकादशी माहात्म्य ॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः
प्रिय भक्तों आज हम आप सभी के समक्ष पुत्रदा एकादशी की कथा सुनाएंगे। साल में पड़ने वाली 2 पुत्रदा एकादशियो में से आज की कथा श्रावण मास में पड़ने वाली पुत्रदा एकादशी की है।
इस एकादशी का व्रत अपने आप में क्या महत्व रखता है और इस एकादशी की कथा को सुनने और इसके व्रत को रखने से कौन-कौन से पुण्य फल प्राप्त होते हैं। इन समस्त विषयों की जानकारी आज की कथा में हम आप सब को प्रदान करेंगे। हमारी आशा है और पूर्ण विश्वास है कि आप सभी ध्यान पूर्वक, प्रेम पूर्वक भगवान की इस कथा को सुनेंगे और श्रद्धा अनुसार भगवान की पूजा अर्चना कर अपने व्रतों को संपन्न करेंगे। चलिए शुरू करते हैं।
पुत्रदा एकादशी व्रत कथा (श्रावण मास)
धर्मराज युधिष्ठिर बोले कि हे भगवान! अब आप मुझे श्रावण माह के शुक्लपक्ष की एकादशी की कथा सुनाइये। इस एकादशी का नाम तथा इस की विधि क्या है? सो सब कहिये।
श्री मधुसूदन बोले कि हे राजन्! अब आप शांति पूर्वक श्रावण माह के शुक्लपक्ष की एकादशी की कथा सुनिये। इस कथा के श्रवण मात्र से ही वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है।
द्वापर युग के प्रारम्भ में महिष्मती नाम की नगरी में महीजित नाम का एक राजा पुत्र हीन था। वह सदैव चिन्ता ग्रस्त रहता था। उसे वह राज्य दुःखदायी प्रतीत होता था क्योंकि पुत्र बिना लोक और परलोक दोनों में सुख नहीं है । राजा ने पुत्र की प्राप्ति के बहुत यत्न किये परन्तु वह निष्फल गए। जब वह राजा वृद्ध होने लगा तो उसकी चिंता भी बढ़नी लगी। एक दिन उस राजा ने प्रजा को संबोधन करके कहा कि न तो मैंने अपने जीवन में पाप किया और न अन्याय पूर्वक प्रजा से धन एकत्र किया है। न मैंने कभी देवता और ब्राह्मणों का धन छीना है और न किसी की धरोहर ली है। मैंने प्रजा को सदैव पुत्र की तरह पाला है। मैंने अपराधियों को पुत्र और बांधवों की तरह दंड दिये हैं। मैंने कभी किसी से रागद्वेष नहीं किया, सबको समान माना है। इस प्रकार धर्मयुक्त राज्य करने पर भी मैं इस समय महा दुःख पा रहा हूँ सो क्या कारण है? मेरी 'कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है।
राजा महीजित की इस बात को विचारने के लिये राजा ले पुरोहित व् मन्त्रिगण आदि वन को गये। वहाँ वन में जाकर उन्होंने बड़े-बड़े मुनियों के दर्शन किये। उस स्थान पर जाकर वे सभी वयोवृद्ध और धर्म के ज्ञाता महर्षि लोमश के पास गये। उन सबने जाकर महर्षि को यथा योग्य प्रणाम किया और उनके सम्मुख बैठ गये। वे सब उनसे विनय करने लगे कि हे देव! हमारे अहोभाग्य हैं कि हमें आपके दर्शन हुए। इस पर लोमश ऋषि बोले कि ब्राह्मणों! आप लोगों की विनय तथा आप के 'सद्व्यवहार से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूं। अब आप मुझे अपने आने का कारण बतलाइये। मैं आपके कार्य को अपनी शक्ति के अनुसार अवश्य ही पूरा करूंगा क्योंकि हमारा शरीर ही परोपकार के लिए बना है। इसमें किंचित् मात्र भी सन्देह नहीं है।
लोमश ऋषि के ऐसे वचन सुनकर सब बोले कि हे महर्षि आप हमारी समस्त बातों को जानने को ब्रह्मा से भी अधिक हैं। महिष्मती नाम की पुरी में एक महाजित नाम का एक धर्मात्मा राजा है। वह प्रजा का पुत्र की तरह धर्मानुसार पालन करता है परन्तु फिर भी पुत्रहीन है। इससे वह अत्यन्त दुःखी रहता है। हम लोग उस राजा की प्रजा हैं! क्योंकि प्रजा का यह कर्तव्य है कि राजा के सुख में सुख माने और उसके दुःख में दुःख माने। हमको उसके पुत्रहीन होने का अभी तक कारण प्रतीत नहीं हुआ ! अब जब से आपके दर्शन करे हैं हम को पूर्ण रूप से विश्वास है कि हमारा कष्ट अब अवश्य ही दूर हो जाएगा। अतः अब आप हमको राजा के पुत्र होने का उपाय बताइये।
इस पर लोमश ऋषि ने एक क्षण के लिए नेत्र बन्द किये और राजा के पूर्व जन्मों का विचार करने लगे। विचार करके बोले कि हे ब्राह्मणों! यही राजा पिछले जन्म में अत्यन्त निर्धन था तथा बुरे कर्म किया करता था। एक गांव से दूसरे गांव को घूमा करता। एक दिन ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी के दिन जो कि दो दिन से भूख था दोपहर के समय एक जलाशय पर पानी पीने गया। उसी समय की ब्याही हुई प्यासी गौ जल पी रही थी। राजा ने उसको प्यासी ही हटा दिया और स्वयं जल पीने लगा। हे ब्राह्मणों! इस लिये राजा को यह दुःख भोगने पड़ रहे हैं। एकादशी के दिन भूखा रहने से उसको राजा होना पड़ा और प्यासी गौ को हटाने से पुत्र के वियोग का दुःख भोगना पड़ा। इस पर सब लोग बोले कि हे महर्षि शास्त्र में ऐसा लिखा है कि पुण्य से पाप नष्ट हो जाते हैं। इसलिये कृपा करके आप राजा के पूर्व जन्म के पाप नष्ट होने का उपाय बतलाइये क्योंकि इस पाप के क्षय होने से पुत्ररत्न की उत्पत्ति होगी! ब्राह्मणो के ऐसे वचनों को सुनकर लोमश ऋषि बोले कि हे ब्राह्मणो! यदि श्रावण माह की शुक्लपक्ष की पुत्रदा एकादशी को तुम सब लोग व्रत करो और रात्रि को जागरण करो और उस व्रत का फल राजा को प्रदान कर दो तो तुम्हारे राजा को पुत्र रत्न पैदा होगा।
मन्त्रियों सहित समस्त प्रजा महर्षि लोमश ऋषि के वाक्यों को सुनकर प्रसन्नता पूर्वक अपने नगर को वापिस आई। उन सब लोगों ने श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पुत्रदा एकादशी को लोमश ऋषि की आज्ञानुसार विधि पूर्वक व्रत किया और द्वादशी को उसका फल राजा को दिया। उस पुण्य के प्रभाव से रानी ने गर्भ धारण किया और नौ महीने पश्चात् उसके एक अत्यन्त तेजस्वी पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ।
हे राजन् इसलिए इस एकादशी का नाम पुत्रदा पड़ा। जो मनुष्य पुत्र रत्न को प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें इस एकादशी का विधि पूर्वक व्रत करना चाहिए। इस व्रत के प्रभाव से इस लोक में सुख और परलोक में स्वर्ग मिलता है।
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः
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