Devshayani Ekadashi Vrat Katha | Chaturmas Vrat Katha

 ॥ अथ देवशयनी (पद्मा) एकादशी माहात्म्य ॥

धर्मराज युधिष्ठिर बोले कि हे भगवान आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की एकादशी का क्या नाम है, उस दिन कौन से देवता की पूजा होती है तथा उसकी विधि क्या है? सो सविस्तार पूर्वक कहिये। 

श्रीकृष्ण भगवान बोले- हे राजन! एक समय नारद जी ने ब्रह्माजी से यही प्रश्न पूछा था। तब ब्रह्माजी बोले कि हे नारद! इस एकादशी का नाम पद्मा है। इसके व्रत करने से विष्णु भगवान प्रसन्न होते हैं। मैं यहाँ एक पौराणिक कथा कहता हूँ, ध्यान पूर्वक सुनो।

सूर्यवंशी मान्धाता नाम का एक राजर्षि था। एक समय उस राजा के राज्य में तीन वर्ष तक वर्षा नहीं हुवी जिससे राज्य में अकाल पड़ गया और प्रजा अन्न की कमी के कारण अत्यन्त दुःखी रहने लगी। एक दिन प्रजा राजा के पास जाकर प्रार्थना करने लगी हे राजन! समस्त विश्व की पुष्टि का मुख्य कारण वर्षा है। इसी वर्षा के अभाव से राज्य में अकाल पड़ गया है और अकाल से प्रजा मर रही है। हे राजन आप कोई ऐसा उपाय बताइये जिससे हम लोगों का दुख दूर हो। 

इस पर राजा मान्धाता बोला कि आप लोग ठीक कह रहे हैं। वर्षा से ही अन्न उत्पन्न होता है। वर्षा न होने से आप लोग बहुत दुःखी हैं। राजा के पापों के कारण ही प्रजा को दुख भोगना पड़ता है। मैं बहुत सोच विचार कर अपना कोई दोष नहीं दिखाई दे रहा, फिर भी दोष मेरा ही है। मैं आप लोगों के दुख को दूर करने के लिये बहुत यत्न कर रहा हूँ ।

ऐसा कहकर राजा मान्धाता भगवान की पूजा कर कुछ मुख्य आदमियों को साथ में लेकर वन को चल दिया। वहाँ वह ऋषियों के आश्रम में घूमते-2 अन्त में ब्रह्मा के पुत्र अंगिरा ऋषि के पास पहुँचा। वहाँ मुनि अभी नित्यकर्म से निवृत हुये थे। राजा ने उनके सम्मुख प्रणाम किया और मुनि ने उसको आशीर्वाद दिया और बोले-हे राजा! आप कुशल पूर्वक तो हैं तथा आपकी प्रजा भी कुशल पूर्वक होगी। आप इस स्थान पर कैसे हैं सो कहिये। 

राजा बोला कि हे महर्षि मेरे राज्य में तीन वर्ष से वर्षा नहीं हो रही है। इससे अकाल पड़ गया है और प्रजा महान दुख भोग रही है। प्रजा के कष्ट को दूर करने के लिये कोई उपाय बतलाइये। इस पर वह ऋषि बोले राजन! यह सतयुग सब युगों में श्रेष्ठ है। इसमें धर्म के चारों चरण सम्मिलित हैं अर्थात् इस युग में धर्म की सबसे अधिक उन्नति है। इस युग में ब्राह्मणों का तपस्या करना तथा वेद पढ़ना ही मुख्य अधिकार है। परन्तु आपके राज्य में एक शूद्र इस युग में भी तपस्या कर रहा हैं। इस दोष के कारण आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। यदि आप प्रजा का भला चाहते हैं तो शूद्र को मार दीजिये। 

इस पर राजा बोला कि हे मुनिश्वर! मैं उस निरपराध तपस्या करने वाले शूद्र को नहीं मार सकता। आप इस दोष से छूटने का कोई अन्य उपाय बताइये। तब ऋषि बोले- हे राजन्! यदि तुम ऐसा ही चाहते हो तो आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की पद्मा नाम की एकादशी का विधि पूर्वक व्रत करो। इस व्रत के प्रभाव से तुम्हारे राज्य में वर्षा होगी और प्रजा सुख पावेगी। क्योंकि इस एकदशी का व्रत सब सिद्धियों को देने वाला और उपद्रवों की शान्ति करने वाला है। इस एकादशी का व्रत तुम प्रजा व सेवक, मन्त्रियों सहित करो। मुनि के वचनों को सुन राजा अपने नगर को वापिस आया और विधि पूर्वक पद्मा एकादशी का व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से राज्य में वर्षा हुई और मनुष्यों को सुख पहुँचा।

इसलिये यह व्रत सबको करना चाहिए। यह व्रत इस लोक में भोग और परलोक में मुक्ति देने वाला है। इसकी कथा को पढ़ने व सुनने से मनुष्य के समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।

इस एकादशी को देव शयनी एकादशी भी कहते हैं और इस व्रत को करने से विष्णु भगवान प्रसन्न होते हैं। अतः मोक्ष की प्राप्ति के लिये भी मनुष्यों को यह व्रत करना चाहिये । चातुर्मास्य व्रत भी इस एकादशी के व्रत से शुरु किया जाता है।

चातुर्मास व्रत के नियम व्  देवशयनी व्रत विधि 

कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर बोले कि हे भगवान! विष्णु भगवान का शयन व्रत किस प्रकार किया जाता है? सब कृपापूर्वक कहिये। श्रीकृष्ण बोले- हे राजन! अब मैं आपको विष्णु के शयन का व्रत कहता हूँ और साथ ही साथ चातुर्मास्य व्रत को भी कहता हूं। अब आप ध्यान पूर्वक सुनिये। 

जब सूर्य नारायण कर्क राशि में स्थित हों तब विष्णु भगवान को शयन कराना चाहिए और सूर्य नारायण के तुला राशि के आने पर भगवान को उठाना चाहिये। लौंद (अधिक) मास के आने पर भी यह विधि वैसे ही रहती है। इस विधि से अन्य देवताओं को शयन न कराना चाहिये और न उठाना चाहिये। आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की एकादशी विधि पूर्वक करनी चाहिए व उस दिन विष्णु भगवान की प्रतिमा बनानी और चातुर्मास्य व्रत का नियम करना चाहिए। 

Devshayani Ekadashi Vrat Katha | Chaturmas Vrat Katha

सबसे प्रथम उस प्रतिमा को स्नान करावें फिर सफेद वस्त्रों को धारण कराकर तकियादार शैया पर शयन करावे व धूप दीप नैवेद्य आदि से पूजन करना चाहिए। भगवान का पूजन शास्त्र ज्ञाता ब्राह्मणों के द्वारा कराना चाहिए। तत्पश्चात भगवान विष्णु की स्तुति करनी चाहिए।

हे भगवान मैंने आपको शयन कराया है। आप के शयन से सम्पूर्ण विश्व सो जाता है। मेरी आप से हाथ जोड़ कर विनय है कि आप जब चार मास तक शयन करें तो मेरे चातुर्मास्य व्रत को निर्विघ्न पूरा करावें ।

इस तरह विष्णु भगवान की स्तुति करके शुद्ध भाव से मनुष्य को दाँतुन आदि के नियमों को ग्रहण करना चाहिए। विष्णु भगवान के व्रत को शुरू करने के पाँच काल वर्णन किए हैं। देवशयनी एकादशी से लेकर देवोत्थानी एकादशी तक चातुर्मास्य व्रत नियम शुरू करना चाहिये। द्वादशी, पूर्णमासी, अष्टमी या सक्रांति को व्रत प्रारम्भ करना चाहिये और कार्तिक माह के शुक्लपक्ष की द्वादशी को समाप्त कर देना चाहिए। इसके व्रत से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य इस व्रत को प्रति वर्ष करते हैं वह सूर्य के समान देदीप्यमान, विमान पर बैठकर विष्णुलोक को जाते हैं। हे राजन्! अब आप इसका पृथक-पृथक फल सुनें।

  • जो मनुष्य देवमन्दिरों में रंगीन बेल बूटे बनाता है उसे सात जन्म तक ब्राह्मण की योनि मिलती है। 
  • जो मनुष्य चातुर्मास्य के दिनों में विष्णु भगवान को दही, दूध, घी, शहद और मिश्री के द्वारा स्नान कराता है वह वैभवशाली होकर सुख भोगता है। 
  • जो मनुष्य श्रद्धा पूर्वक भूमि, स्वर्ण, दक्षिणा आदि ब्राह्मणों को देता है वह स्वर्ग में जाकर इन्द्र के समान सुख भोगता है । 
  • जो विष्णु भगवान की स्वर्ण प्रतिमा बनाकर धूप, दीप, पुष्प, नैवेद्य आदि से भगवान की पूजा करता है वह इन्द्रलोक में जाकर अक्षय सुख' भोगता है। 
  • जो मनुष्य चातुर्मास्य के अन्दर नित्य प्रति तुलसीजी, भगवान को अर्पित करता है या स्वर्ण की तुलसी अर्पित करता है वह स्वर्ण के विमान पर बैठकर विष्णुलोक को जाता है। 
  • जो मनुष्य विष्णु भगवान की धूप दीप से पूजा करते हैं उनको अनन्त सम्पति मिलती है। 
  • जो मनुष्य इस एकादशी से कार्तिक के महीने तक अश्वत्थ वृक्ष और विष्णु की पूजा करते हैं उनको विष्णुलोक की प्राप्ति होती है। 
  • इस चातुर्मास्य व्रत में जो मनुष्य संध्या के समय देवताओं तथा ब्राह्मणों को दीपदान करते हैं तथा ब्राह्मणों को सोने के कमल के वस्त्र देते हैं वे विष्णुलोक को जाते हैं। 
  • जो मनुष्य भक्ति पूर्वक भगवान का चरणामृत लेते हैं वह इस संसार के आवागमन के चक्र से छूट जाते हैं। 
  • जो विष्णु मंदिर में नित्य प्रति एक सौ आठ बार गायत्री मंत्र का जप करते हैं वह पापों में लिप्त नहीं होते। 
  • जो मनुष्य पुराण तथा धर्मशास्त्र को सुनते हैं और वेदपाठी ब्राह्मणों को वस्त्रों तथा स्वर्ण सहित उनका दान करते हैं वे दानी धनी, ज्ञानी और कीर्तिमान होते हैं। 
  • जो मनुष्य विष्णु भगवान या शिवजी का स्मरण करते हैं और अन्त में उनकी प्रतिमा दान करते हैं वह सब पापों से रहित होकर गुणवान बनते हैं। 
  • जो मनुष्य सूर्यनारायण को अर्ध्य देते हैं और समाप्ति में स्वर्ण रक्त गौ-दान करते हैं उनको पूरी आयु की स्वस्थ देह प्राप्त होती है तथा कीर्ति, धन और बल पाते हैं। 
  • चातुर्मास्य में जो मनुष्य गायत्री मन्त्र द्वारा तिल से होम करते हैं और चातुर्मास्य समाप्त हो जाने पर तिल का दान करते हैं उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और निरोग शरीर मिलता है तथा सुपात्र सन्तान होती है।
  •  जो मनुष्य चातुर्मास्य व्रत में अन्न से होम करते हैं और समाप्त हो जाने पर घी, घड़ा और वस्त्रों को दान करते हैं वह ऐश्वर्यशाली होते हैं तथा ब्रह्मा के समान भोग भोगते हैं। 
  • जो अश्वत्थ वृक्ष की पूजा करते हैं तथा अन्त में स्वर्ण सहित वस्त्रों का दान करते हैं, उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।
  • जो मनुष्य तुलसीजी को धारण करते हैं तथा अन्त में विष्णु भगवान के निमित्त ब्राह्मणों को दान करते हैं विष्णु लोक को जाते हैं। 
  • जो मनुष्य चातुर्मास्य व्रत में भगवान के शयन के उपरान्त उनके मस्तक पर नित्य प्रति दूब चढ़ाते हैं और अन्त में स्वर्ण की दुर्वादान करते हैं तथा दान देते समय जो इस प्रकार स्तुति करते हैं कि दूर्बे! जिस भाँति इस पृथ्वी पर शाखाओं और छोटी शाखाओं सहित फैली हुई हो उसी प्रकार मुझे भी अजर, अमर सन्तान दो। ऐसा करने वाले मनुष्य के सब पाप छूट जाते हैं और अन्त में स्वर्ग को जाते हैं। 
  • जो शिवजी का विष्णु भगवान के देवालय में गान करते हैं उन्हें रात्रि जागरण का फल मिला है। 
  • जो मनुष्य चातुर्मास्य व्रत करते हैं उनको उत्तमध्वनि वाला घंटा दान करना चाहिए। घंटा दान करने के उपरान्त उसको भगवान की इस प्रकार स्तुति करनी चाहिए हे भगवान! हे जगत्पत्ति! आप पापों का नाश करने वाले हैं। आप मेरे करने योग्य कार्यों को न करने और न करने योग्य कार्यों को करने से जो पाप उत्पन्न हुए हैं उनको नष्ट कीजिये। 
  • चातुर्मास्य व्रत के अन्दर जो नित्य प्रति ब्राह्मणों का चरणामृत पान करते हैं वे समस्त पापों तथा दुःखों से छूट जाते हैं और वे आयुवान लक्ष्मीवान होते हैं। 

चातुर्मास्य व्रत के समाप्त हो जाने के बाद दो गौ दान करना चाहिये। यदि गौ-दान न कर सके तो वस्त्रदान अवश्य करना चाहिये। जो ब्राह्मण को नित्य प्रति नमस्कार करते हैं उसका जीवन सफल हो जाता है और समस्त पापों से छूट जाते हैं। 

  • चातुर्मास्य व्रत की समाप्ति में जो ब्राह्मणों को भोजन कराता है उसकी आयु तथा धन की वृद्धि होती है। 
  • जो मनुष्य अलंकार दक्षिणा को दान करते हैं वह चक्रवर्ती, आयुवान पुत्रवान राजा होते हैं और स्वर्ग लोकों में - प्रलय के अन्त तक इन्द्र के समान राज्य करते हैं। 
  • जो मनुष्य सूर्य भगवान तथा गणेश जी को नित्य नमस्कार करते हैं। उनकी आयु तथा लक्ष्मी बढ़ती है और यदि गणेश जी प्रसन्न हो जायें तो मनवांछित फल पाते हैं। 
  • गणेश जी और सूर्य की प्रतिमा ब्राह्मण को देने से सब काम की सिद्धि होती है। 
  • जो मनुष्य दोनों ऋतुओं में महादेवजी की प्रसन्नता के लिए रूपा दान करते हैं या जो प्रति दिन तिल और वस्त्रों के साथ ताँबे का पात्र दान करते हैं उनके यहां स्वस्थ, सुन्दर शिव भक्त पुत्र रत्न उत्पन्न होते हैं।

चातुर्मास्य व्रत की समाप्ति पर चांदी पात्र या तांबा पात्र गुड़ और तिल के साथ दान करना चाहिये। 

  • जो मनुष्य विष्णु भगवान के शयन करने के उपरान्त यथा शक्ति वस्त्र और तिल के साथ स्वर्ण दान करते हैं उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और इस लोक में भोग तथा परलोक में मोक्ष दोनों प्राप्त होते हैं। 
  • जो मनुष्य ब्राह्मणों की धूप पुष्प से पूजा करते हैं और अन्न वस्त्र दान देते हैं तथा चातुर्मास्य व्रत के समाप्त होने पर शैया दान करते हैं उनको अक्षय सुख मिलता है और कुबेर के समान धनवान होते हैं। 
  • वर्षा ऋतु में जो गोपीचन्दन देते हैं उस पर भगवान प्रसन्न होते हैं और इस लोक में भोग तथा परलोक में मुक्ति पाते हैं। 
चातुर्मास्य व्रत में भगवान के शयन करने पर गुड़ अथवा शक्कर का दान देते हैं और व्रत के समाप्त हो जाने पर इस प्रकार उद्यापन करते हैं - चार पल या आठ पल वाले तांबे के आठ पात्र या अड़तालीस पल का एक तांबे का पात्र लेकर उसमें शक्कर भरकर तथा वस्त्र, फल, दक्षिणा सहित ब्राह्मण को देना चाहिए। शक्कर सहित तांबे का पात्र सूर्य को प्रिय है। इससे मनुष्य के समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं। उसके दान के प्रभाव से बलवान कीर्तिवान सन्तान उत्पन्न होती है जो मनवांछित फल देने वाली है ।

हे कुन्ती पुत्र ! इस चातुर्मास्य व्रत को करने वाला मनुष्य गन्धर्व विद्या में निपुण और स्त्रियों को प्रिय होता है। 

  • जो मनुष्य चतुर्मास्य व्रत में ब्राह्मणों को शाक फल आदि देते हैं और अन्त में यथा शक्ति दान दक्षिणा वस्त्र आदि देते हैं वह सुखी राज योगी बनते हैं, शाक और फल से देवता प्रसन्न होते हैं। अतः उनके देने से देवता प्रसन्न होते हैं। 
  • जो मनुष्य इस व्रत में प्रति दिन सोंठ, मिर्च, पीपर का वस्त्र और दक्षिणा के साथ दान करते हैं और व्रत के अन्त में स्वर्ण की सोंठ मिर्च आदि दान देते हैं वे सौ वर्ष तक जीते हैं और अन्त में स्वर्ग को जाते हैं। 
  • जो मनुष्य बुद्धिमान ब्राह्मण को मोती दान करता है वह कीर्ति को प्राप्त करता है। 
  • जो मनुष्य इस व्रत में तम्बाकू का दान करते हैं तो तम्बाकू खाना छोड़ देते हैं और अन्त में लाल वस्त्र ब्राह्मण को दान करते हैं वह अगले जन्म में सौन्दर्यशाली बनते हैं और निरोगी, बुद्धिमान, भाग्यवान तथा सुन्दर वाणी वाले होते हैं।  
तम्बाकू के दान से इस लोक में गन्धर्व विद्या में निपुण और परलोक में स्वर्ग मिलता है। तम्बाकू, लक्ष्मी और मंगल प्रदान करती है। इसके दान से देवता प्रसन्न होते हैं और अनन्त धन देते हैं। इस व्रत में जो मनुष्य लक्ष्मी या पार्वती को प्रसन्न करने के लिए हल्दी का दान करते हैं और अन्त में चांदी के पात्र में हल्दी रखकर दान देते हैं वे स्त्रियां अपने पति के साथ और पति अपनी स्त्री के साथ सुख भोगते हैं। इससे इन्हें सौभाग्य अक्षय धन तथा सुपात्र संतान मिलती है और उनकी देवलोक में पूजा होती है। 

इस व्रत में जो मनुष्य शिवजी और पार्वती जी की प्रसन्नता के लिए ब्राह्मण स्त्री पुरुषों की पूजा करते हैं तथा दक्षिणा वस्त्र स्वर्ण आदि दान करते हैं और व्रत के शुरू में शिव जी की स्वर्ण की प्रतिमा दान देते हैं। गौ और बैल दान व ब्राह्मणों को मीठा भोजन कराते हैं उन्हें सम्पत्ति और कीर्त्ति मिलती है। और इस लोक में सुख भोग कर अन्त में शिव लोक को जाते हैं । जो मनुष्य फल का दान करता है और व्रत के अन्त में स्वर्ण दान करता है उसके सब मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। सुपात्र सन्तान पैदा होती है। फलदान से इन्हें नन्दवन का सुख प्राप्त होता है। 

जो मनुष्य इस व्रत में पुष्पदान करते हैं उन्हें इस लोक में सुख मिलता है और परलोक में गन्धर्व पद मिलता है। इसमें वामन भगवान की प्रसन्नता के लिए ब्राह्मणों को दही युक्त भात खिलाना चाहिए। यदि यह नित्य न हो सके तो आठों, अमावस्या पूर्णमासी और प्रत्येक रविवार या शुक्रवार को खिलाना चाहिए। इस व्रत की समाप्ति में भूमिदान न हो सके तो वस्त्र और स्वर्ण से युक्त पादुका दान करना चाहिए। ऐसा करने से इस लोक में धन धान्य, पुत्र तथा विष्णु भक्ति मिलती है और अन्त में विष्णु लोक को जाते हैं। जो मनुष्य दान तथा आभूषण से युक्त बछड़ा सहित गौ का दान करते हैं वह इस लोक में ज्ञानी और किसी के सेवक नहीं बनते और अन्त में ब्रह्मलोक में जा कर पितरों के साथ अनन्त सुख प्राप्त करते हैं।

Devshayani Ekadashi Vrat Katha | Chaturmas Vrat Katha

  • चातुर्मास्य व्रत में जो मनुष्य प्रजापत्य व्रत करते हैं और इसके समाप्ति में गौ दान करते हैं और ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं वह समस्त पापों से छूटकर ब्रह्म लोक को जाते हैं। 
  • इस व्रत में जो एक दिन छोड़कर वस्त्र और बैलों के साथ आठ हल दान करते हैं और शाक, मूल, फल आहार करते हैं वह विष्णुलोक को जाते हैं। 
  • जो मनुष्य पयोव्रत करते हैं और अन्त में दूध वाली गौ देते हैं वह विष्णु लोक को जाते हैं। 
  • जो मनुष्य दोनों ऋतुओं में केला पत्र और पलासके पत्रों में भोजन करते हैं। तथा कांसे के पात्र और वस्त्रदान करते हैं वे लोक में सुख पाते हैं। 
  • इस व्रत में जो पलास पत्र पर भोजन करते हैं तथा तेल नहीं खाते हैं उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। 

चातुर्मास्य व्रत के प्रभाव से ब्राह्मण घात करने वाला, सुरा पीने वाला, बालकों को मारने वाला, असत्य भाषण करने वाला, स्त्री को मारने वाला, किसी के व्रत को बिगाड़ने वाला, अगम्या गमन करने वाला, विधवा गमन करने वाला, ब्राह्मणी तथा चाण्डालनी से गमन करने वाला, इन सबके पाप नष्ट हो जाते हैं। और अन्त में निर्वाण पद को पाते हैं।

  • चातुर्मास्य व्रत के अन्त में चौंसठ पल कांसे का पात्र तथा आभूषणों युक्त बछड़ा सहित गौ का दान करना चाहिये। 
  • जो मनुष्य भूमि को लीप कर भगवान का स्मरण करके भोजन करते हैं उन्हें आरोग्यता तथा पुत्र की प्राप्ति होती है। वह धार्मिक तथा चक्रवर्ती राजा होते हैं। उन्हें किसी शत्रु का भय नहीं रहता और अन्त में वह स्वर्ग को जाते हैं। 
  • जो मनुष्य बिना मांगे हुए आभूषणों से युक्त चंदन सहित बैल दान करते हैं तथा उसे षठरस चंदन सहित बैल दान करते हैं तथा उसे षठरस युक्त भोजन कराते हैं उन्हें विष्णुलोक प्राप्त होता है। 
  • जो मनुष्य भगवान के शयन करने पर नित्य प्रति रात्रि को जागरण करते हैं तथा अन्त में ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं उन्हें शिवलोक की प्राप्ति होती है। 
  • चातुर्मास्य व्रत में जो मनुष्य नित्य प्रति एक समय खाकर ही रहता है तथा अन्त में भूखे को भोजन कराते हैं उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है। 
  • जो मनुष्य भक्ति पूर्वक भगवान की पूजा करता है वह विष्णु लोक को जाता है। 
  • जो भगवान के शयन करने के बाद भूमि पर सोता है तथा अन्त में शैयादान करता है उनकी शिवलोक में पूजा होती है। 
  • चातुर्मास्य व्रत में जो मनुष्य मैथुन नहीं करता वह बलशाली, यशस्वी और लक्ष्मीवान होता है तथा अन्त में स्वर्गलोक को जाता है। 
  • जो मनुष्य इस व्रत में उत्तम चावल या जौ सपरिवार खाता है वह स्वर्ग को जाता है। 
  • चातुर्मास्य व्रत में जो तेल नहीं लगाता तथा अन्त में कांसे या मिट्टी के पात्र में तेल भरकर दान देता है वह विष्णु लोक को जाता है। 
  • जो इस व्रत में शाक नहीं खाता और अन्त में चांदी के पात्र को वस्त्र लपेटकर दान देता है वह शिव लोक में जाकर ख्याति प्राप्त करता है। 
  • जो मनुष्य इस व्रत में गेहूं को त्यागकर भोजन करते हैं तथा सुवर्ण का गेहूं दान करते हैं उन्हें अश्वमेघ यज्ञ के फल की प्राप्ति होती है। 
  • जो मनुष्य इस व्रत में अपनी इन्द्रियों का दमन करता है उसे अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है। 
  • जो मनुष्य श्रावण में शाक, भादो में दही, क्वार में दूध और कार्तिक में दाल को त्याग देते हैं उन्हें निरोगी काया प्राप्त होती है। 
  • जो स्नान करके भगवान की पूजा करते हैं वह स्वर्ग को जाते हैं! जो मनुष्य इस व्रत में मीठा, खट्टा, कडुआ पदार्थ को त्याग देता है वह समस्त दुर्गुणों से छूट स्वर्ग को जाता है। 
  • जो मनुष्य भगवान को स्मरण करते हैं। उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती है। 
  • जो मनुष्य इस व्रत में पुष्प आदि को धारण करना छोड़ देते हैं वह स्वर्गलोक को जाते है।  
  • इस व्रत में जो मनुष्य चन्द्रायण का व्रत करते हैं वह स्वर्गलोक को जाते हैं। 
  • जो मनुष्य इस व्रत में एक मात्र दूध पर ही जीवन निर्वाह करते हैं उनका वंश प्रलय के अंत तक चलता है। 
जिस दिन भगवान शयन करते हैं उस दिन ब्राह्मणों को दान वस्त्र तथा भोजन कराना चाहिए। यह समस्त दान वेदपाठी धार्मिक ब्राह्मण को देना चाहिए। चोरी करने वाला, मद्यपान करने वाला, अगम्या गमन करने वाला, अधर्मी, शास्त्रों का निरादर करने वाला, मिथ्या बोलने वाला, अन्य त्याज्य कर्म करने वाले ब्राह्मण को दान देने से उल्टा पाप लगता है तथा नर्क की प्राप्ति होती है ।

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