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अयप्पा स्वामी का जीवन परिचय | सबरीमाला के अयप्पा स्वामी कौन है?

अयप्पा स्वामी, हिंदू धर्म के एक देवता हैं। उन्हें धर्मसस्थ और मणिकंदन भी कहा जाता है। उन्हें विकास के देवता के रूप मे माना जाता है और केरल में उनकी खास पूजा होती है। अयप्पा को धर्म, सत्य, और धार्मिकता का प्रतीक माना जाता है। अक्सर उन्हें बुराई को खत्म करने के लिए कहा जाता है। अयप्पा स्वामी को भगवान शिव और देवी मोहिनी का पुत्र माना जाता है। Swami Sharaname Ayyappa Sharaname मान्यता है कि समुद्र मंथन के दौरान जब भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया, तब शिव जी उनपर मोहित हो गए और उनका वीर्यपात हो गया। इसके प्रभाव से स्वामी अयप्पा का जन्म हुआ। इसलिए अयप्पा देव को हरिहरन भी कहा जाता है।  अयप्पा स्वामी के बारे में कुछ और बातें: अयप्पा स्वामी का मंदिर केरल के सबरीमाला में है। अयप्पा स्वामी को अयप्पन, शास्ता, और मणिकांता नाम से भी जाना जाता है। अयप्पा स्वामी को समर्पित एक परंपरा है, जिसे अयप्पा दीक्षा कहते हैं। यह 41 दिनों तक चलती है। इसमें 41 दिनों तक न चप्पल पहनते हैं और न ही नॉनवेज खाते हैं। मकर संक्रांति की रात घने अंधेरे में रह-रहकर एक ज्योति दिखती है. मंदिर आने वाले भक्त मानत

Bhagwan Satyanarayan Katha in Hindi | श्री सत्यनारायण की पौराणिक कथा

Shree Satyanarayan Ki Durlabh Vrat Katha

भक्तजनो आज गुरुवार है,
आज हम आपको सत्य के साक्षात स्वरुप भगवान सत्यनारायण की कथा बतायेंगे। भगवान सत्यनारायण व्रत की सम्पूर्ण कथा पांच अध्यायों में है। हम अपने पाठकों के लिए पाँचों अध्याय प्रस्तुत कर रहे है।

सत्यनारायण व्रत कथा का पहला अध्याय : 

श्रीव्यास जी ने कहा – एक समय नैमिषारण्य तीर्थ में शौनक आदि सभी ऋषियों तथा मुनियों ने पुराणशास्त्र के वेत्ता श्रीसूत जी महाराज से पूछा – हे भगवान ऐसा कौन सा व्रत और तप है जिसको करने मात्र से समस्त मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। हम सभी लालसा पूर्वक उस व्रत और तप को सुनना चाहते हैं। कृपया कर आप सविस्तार बताने की कृपा करें। 
श्री सूतजी बोले – इसी प्रकार देवर्षि नारदजी के द्वारा भी पूछे जाने पर भगवान कमलापति ने उनसे जैसा कहा था, मैं आप सभी के समक्ष उसे कह रहा हूं, आप लोग सावधान होकर सुनें। 
एक समय योगी नारदजी लोगों के कल्याण की कामना से विविध लोकों में भ्रमण करते हुए मृत्युलोक में आये और यहां उन्होंने अपने कर्मफल के अनुसार नाना योनियों में उत्पन्न सभी प्राणियों को अनेक प्रकार के क्लेश दुख भोगते हुए देखा तथा ‘किस उपाय से इनके दुखों का सुनिश्चित रूप से नाश हो सकता है’, ऐसा मन में विचार करके वे विष्णुलोक गये। वहां चार भुजाओं वाले शंख, चक्र, गदा, पद्म तथा वनमाला से विभूषित शुक्लवर्ण भगवान श्री नारायण का दर्शन कर उन देवाधिदेव की वे स्तुति करने लगे।
भगवान के दर्शन कर नारद जी बोले हे मन और बुद्धि की पहुंच से परे कमलापति नारायण आपको नमस्कार है। आप आदि और अनंत हैं। आप निर्गुण ब्रह्म और सगुण ब्रह्म दोनों रूपों में विद्यमान होकर समस्त जगत का कल्याण करने वाले परमेश्वर हैं। आप अनंत शक्तिमान हैं। आप सर्वशक्तिमान है। आप केवल अपनी इच्छा मात्र से संसार का सर्जन और प्रलय करने की क्षमता रखने वाले भगवान हैं। आप ही इस जगत के कारण भी हैं और अंत में यह जगत आप ही में विलीन भी हो जाता है। भक्तों की पीड़ा को हरने वाले प्रभु आप को बारंबार प्रणाम है। 
नारद जी द्वारा प्रेम पूर्ण रूप से की हुई स्थिति को सुनने के पश्चात भगवान श्री हरि बोले हे नारद आपका किस प्रयोजन से यहां आगमन हुआ है। विस्तार पूर्वक कहिए। नारद जी बोले हे भगवान कुछ समय के लिए मैं मृत्युलोक में घूम रहा था। वहां मैंने असंख्य प्राणियों को अपने बुरे कर्मों के कारण पापों को भोगते हुए देखा है। उन्हें अनेकों प्रकार के दुख हैं जिनसे छूटना असंभव प्रतीत होता है। 
हे नाथ क्या कोई ऐसा उपाय है जिसे करने मात्र से प्राणी अपने पापों से छूट जाएं ?ऐसा कोई व्रत है जिसके करने से समस्त संसार के प्राणी मोह से मुक्त हो जाएं। ऐसा कोई व्रत हो तो कृपया कर बताने की कृपा करें। 
नारद जी की वाणी को सुनकर भगवान श्री हरि बोले कि हे नारद संसार के ऊपर अनुग्रह करने की इच्छा से तुम्हारे मन में जो प्रश्न आया है आज मैं उसका उत्तर बताते हुए तुम्हें एक ऐसा व्रत बदला दूंगा जिसको करने से संसार के प्राणी मोह बंधन से  छूट जाएंगे और कल्याण को प्राप्त होंगे। 

नारद की बात सुनकर भगवान श्री हरि बोले, हे नारद आज के समय में मृत्युलोक में और स्वर्ग में दोनों ही जगह केवल एक ही व्रत ऐसा है जिसको श्रद्धा पूर्वक करने मात्र से प्राणी अपने दुर्भाग्य का अंत करके अपने सौभाग्य को प्राप्त कर सकता है। उसका नाम है श्री सत्यनारायण व्रत है। 
इस व्रत को पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ करना चाहिए और इसकी कथा को सुनना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य के समस्त बंधन छूट जाते हैं। भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करते समय बंधु-बंधुओं को आमंत्रित करना चाहिए और सबको मिलकर सायं काल में भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा प्रारंभ करनी चाहिए। भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करने मात्र से प्राणी मोह बंधन से छूट जाता है और कल्याण को प्राप्त होता है। 
भगवान नारायण ने बोला की हे नारद, सत्यनारायण व्रत मनुष्य के समस्त पापों को मिटाने वाला, सुख, शांति, वैभव को प्रदान करने वाला, संतान देने वाला, सौभाग्य देने वाला, अशांति का दमन करने वाला है और विजय प्रदान करने का श्रेय भी सत्यनारायण व्रत को ही जाता है। 
यूं तो भगवान का व्रत कभी भी किया जा सकता है जब आपका मन चित्त शुद्ध हो तब वही समय भगवान के पूजा अर्चना के लिए अच्छा माना जाता है परंतु प्रत्येक मास की पूर्णिमा में यदि आप भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करें तो उसे अति उत्तम माना जाता है। 
ध्यान रखने योग्य बात यह है कि आप जब भी भगवान का व्रत करें तब आपका मन चित्त शुद्ध होना चाहिए और मन चित्त शुद्ध करके बंधु बंधुओं को आमंत्रित करके सायं काल में प्रेम भाव से भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा करनी चाहिए। भगवान को उत्तम नैवेद्य का भोग अर्पित करके उन्हें सवाया मात्रा में भगवान को चढ़ाना चाहिए। भगवान को दूध, केले, गेहूं का चूर्ण और अगर यदि गेहूं का न हो तो साठी के चावल का चूर्ण शक्कर गुड़ सहित भगवान को अर्पित करना चाहिए। 
सवाया मात्रा में अर्पित किया गया भोग भगवान् को अति प्रिय होता है। भगवान श्री सतनारायण की कथा को सुनने के पश्चात ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देनी चाहिए और बंधु-बंधुओं सहित ब्राह्मणों को भोजन कराकर स्वयं भोजन करना चाहिए। 
भगवान की कथा सुनना, ब्राह्मणों को भोजन कराने के पश्चात, स्वयं भोजन प्रसाद को ग्रहण करके भगवान का भजन कीर्तन करना चाहिए और थोड़ी देर भजन कीर्तन करते हुए ही अपने अपने घरों को प्रस्थान करना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य के समस्त मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। उसके कष्ट, उसके दुख दूर हो जाते हैं। उसे भगवान श्री सत्यनारायण की कृपा प्राप्त होती है हे। हे नारद इस कलयुग और भूलोक में मनुष्य को पापों से छूटने का सबसे उत्तम उपाय यही है जो आज मैंने तुमसे कहा है। 

सत्यनारायण कथा का, दूसरा अध्याय

श्री सत्यनारायण भगवान की दूसरी कथा में श्रीसूतजी महाराज अन्य ऋषियों से बोलते हैं कि अब मैं सत्यनारायण कथा के दूसरे भाग में आप सबको काशी में रहने वाले उस ब्राह्मण की कथा सुनाऊंगा जो अत्यंत निर्धन था परंतु भगवान को सदैव उसकी फिक्र लगी रहती थी। 
काशीपुरी में एक निर्धन ब्राह्मण रहता था जो सदैव भूख प्यास से व्याकुल रहता था।  उसके पास न तो पहनने को वस्त्र होते, ना खाने को अन्न ही होता था। इसीलिए वह सदैव भिक्षा के लिए यहां-वहां फिरा करता था। एक दिन निर्धन ब्राह्मण पर दया खाकर स्वयं नारायण ने एक बूढ़े ब्राह्मण का वेश धारण किया और उस निर्धन ब्राह्मण से पूछा कि हे विप्रवर आप किस लिए रोज यहां-वहां फिरा करते हैं। आखिर इसका कारण क्या है। उस निर्धन ब्राह्मण ने कहा कि भगवान मैं बहुत गरीब हूं। मेरे पास न खाने कौ अन्न है ना पहनने को कपडे ही है। यही कारण है कि भिक्षा मांगने के लिए मैं यहां-वहां भटकता रहता हूं। यदि आपकी नजर में कोई ऐसा कोई उपाय हो जिससे मेरी भूख-प्यास मिट सके और मेरी निर्धनता दूर हो सके तो कृपया कर मुझे बताने का कष्ट करें।
उस निर्धन ब्राह्मण की बातों को सुनकर वृद्ध ब्राह्मण रूप धारी भगवान ने बोला कि हे विप्रा वर, अपने समस्त संकटों से छुटकारा पाने के लिए तुम भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करो। यह वक्त परम पवित्र माना जाता है। इस व्रत को करने से व्रत धारी के समस्त पाप नष्ट होकर उसे अनंत वैभव प्राप्त होता है और अंत में मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। भगवान श्री सत्यनारायण के व्रत को करने का संपूर्ण विधान वृद्ध ब्राह्मण ने उस निर्धन ब्राह्मण को समझा दिया और वहीं पर देखते-देखते ब्राह्मण रूप धारी भगवान अंतर्ध्यान हो गए। 
वृद्ध ब्राह्मण की कही हुई प्रत्येक बात को सोचकर उस निर्धन ब्राह्मण को बड़ा विस्मय हुआ। उसने अपने मन में संकल्प कर लिया कि वृद्ध ब्राह्मण द्वारा बताए गए नियमानुसार ही मैं सत्यनारायण भगवान का व्रत करूंगा। ऐसा मन में संकल्प लेकर वह रात्रि में सोने को चला गया परंतु उसे निंद्रा नहीं आई। अगले दिन सत्यनारायण के व्रत का ध्यान मन में करके जब वह भिक्षा मांगने के लिए अपने घर से निकला तो उसे बहुत सा धन मिल गया जो शिक्षा में प्राप्त हुआ। उस धन से उसने अपने समस्त बंधु-बांधवो को आमंत्रित कर उन सब के साथ मिलकर भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत किया जिसके प्रभाव से उसके दुखों का अंत हुआ। उसे सुख-संपत्ति, वैभव प्राप्त होने लगा और अब वह प्रत्येक महीना भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करने लगा और अंत में उसे मोक्ष प्राप्त हो गया। 
हे ब्राह्मणों जब-जब इस पृथ्वी पर कोई भी भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करेगा, तत्काल ही उसके समस्त पाप नष्ट हो जाएंगे। ऐसा भगवान श्री नारायण ने नारद जी को इस व्रत का फल बताते हुए कहा था। वही सब मैंने आप सबको सुना दिया है। इसके अतिरिक्त और इससे ज्यादा अब कहने का सामर्थ्य मेरी वाणी में नहीं है।  इतना कहकर सूत जी महाराज शांत हो गए परंतु कुछ ब्राह्मणों के मन में कुछ प्रश्न थे। उनमें से एक ब्राह्मण ने पूछ लिया कि हे भगवान उस ब्राह्मण के द्वारा बताए गए इस व्रत को और किसने-किसने इस पृथ्वी पर किया। हम सब जानना चाहते हैं क्योंकि अब इस व्रत में हमारी आस्था हो रही है। इस व्रत को करने का हमारा मन है। इसलिए हम जानना चाहते हैं कि और किसने-किसने इस व्रत के फल को प्राप्त किया है। 
ब्राह्मणों के प्रश्नों को सुनकर सूत जी महाराज बोले कि ठीक है अब मैं आपको बताता हूं कि उस ब्राह्मण से सुन के आगे और  किसने इस व्रत को धारण किया।  
एक बार की बात है वह द्विजश्रेष्ठ ब्राह्मण अपने सामर्थ्य अनुसार अपने परिवार और बंधु-बांधव सहित भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करने के लिए संकल्प बध्ध हुवा और उसने भगवान का व्रत करना प्रारंभ किया। जिस दिन वह भगवान सत्यनारायण का व्रत अपने घर में कर रहा था उसी समय वहां एक भूख-प्यास से व्याकुल लकड़हारा उसके घर पर पहुंचा और लकड़ियों का लट्ठा उसके घर के बाहर रखकर वह लकड़हारा उस ब्राह्मण के घर में प्रवेश कर गया। 
वह लकड़हारा बहुत भूखा भी था और प्यासा भी। भूख प्यास से व्याकुल उस लकड़हारे ने जब उस ब्राह्मण को भगवान का व्रत करते देखा तो उसने हाथ जोड़कर ब्राह्मण को प्रणाम किया और पूछा कि हे विप्रवर आप क्या कर रहे हैं ? यह कौन सी पूजा और व्रत है ?इसको करने से कौन सा पुण्य फल प्राप्त होता है? कृपया करके मुझे सविस्तार बताइए। 
तब उस ब्राह्मण ने उस लकड़हारे को बताया कि हे लकड़हारे यह भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत है। इसको करने से अमोघ फल प्राप्त होता है। समस्त वैभव संपदा जो कुछ भी आज तुम मेरे पास तुम देख रहे हो यह सब भगवान श्री सत्यनारायण के व्रत का ही प्रताप है। मेरे समस्त संकट को हरने वाला यही व्रत है जिसको करने से मैंने अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदल दिया है। 
भगवान श्री सत्यनारायण के व्रत का प्रभाव सुनकर उस लकड़हारे ने मन ही मन यह संकल्प किया कि अब मैं भी भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करूंगा। आज लकड़ी बेचकर जो कुछ भी धन मुझे प्राप्त होगा उस धन से मैं भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत अवश्य करूंगा। ऐसा सोचकर वह लकड़हारा उस ब्राह्मण के घर से दूर नगर की तरफ चला गया जहां वह लकड़ी बेचने जाया करता था। ईश्वर की कृपा से उस दिन उसे अपनी लड़कियों का दोगुना मूल्य प्राप्त हुआ। इसके बाद उस लकड़हारे ने उस धन से घी, शर्करा, दूध, फल, केले और गेहूं का चूर्ण सब कुछ सवाया मात्रा में लेकर अपने घर की तरफ प्रस्थान किया और उसने अपने बंधु बंधुओं को बुलाकर, अपने इष्ट मित्रों सहित भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत किया। उसके व्रत करने के प्रभाव से उसे धन-संपत्ति सहित पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। उसने इस लोक में अनेकों सुखों का भोग किया और अंत में उसने मोक्ष की प्राप्ति हो गई।

सत्यनारायण कथा का,तीसरा अध्याय

श्री सूतजी महाराज ने समस्त मुनियों से बोला कि हे मुनिगण अब मैं आपको भगवान श्री सत्यनारायण की कथाओं में से तीसरी कथा अर्थात तीसरा अध्याय सुनाऊंगा। इस अध्याय को सुनकर आप सब के ह्रदय में भगवान श्री सत्यनारायण की व्रत के प्रति घोर आस्था का उदय होगा। आप सभी ध्यान पूर्वक सुने। 
प्राचीन समय में उल्कामुख नाम का एक राजा था जो अत्यंत सत्यवादी और धर्म परायण था। वह सदैव ब्राह्मणों की सेवा किया करता और रोज देवालय जाता था और ब्राह्मणों को बहुत सी दान-दक्षिणा देकर संतुष्ट किया करता था। उसकी एक स्त्री थी जो अत्यंत सुंदर थी और अपने रूप के समान ही व पति परायण भी थी क्योंकि वह एक सती नारी थी। केवल अपने पति को ही अपना परमेश्वर मानती थी। वह राजा अपनी पत्नी, अपने बंधु-बांधव सहित भगवान श्री सत्यनारायण की व्रत के लिए संकल्पित हो भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करना प्रारंभ करता है। यह संपूर्ण धार्मिक आयोजन उसने भद्रशीला नदी के तट पर संपन्न किया। 
जिस वक्त वह राजा भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत भद्रशीला नदी के तट पर कर रहा था उसी समय दूर देश से आता हुआ एक वैश्य जिसका नाम साधु था अपनी नाव के साथ वहां पर आया और उसने उल्कामुख राजा को इस व्रत को करते देखा।  साधु वैश्य ने उस राजा से हाथ जोड़कर विनय पूर्वक पूछा की हे महाराज आप यह कौन सा व्रत कर रहे हैं? इस व्रत को करने से कौन से पुण्य फल की प्राप्ति होती है? 
तब उस राजा ने उससे बोला कि यह भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत है। इस व्रत को करने से संतान की प्राप्ति होती है। मैं पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ अपनी पत्नी सहित इस व्रत को कर रहा हूं। मुझे पूर्ण आशा है कि मुझे संतान अवश्य प्राप्त होगी। 
राजा उल्कामुख की बात सुनकर साधु नाम के वैश्य के मन में आस्था उत्पन्न हुई क्योंकि उसे भी संतति का सुख नहीं था। उसने इस व्रत को करने की संपूर्ण विधि महाराज से सुनी और मन में संकल्प किया कि मैं भी अपने परिवार सहित मिलकर भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करूंगा जिसकी वजह से मुझे भी संतान का सुख अवश्य प्राप्त होगी।  यह सब मन में विचार कर वह साधु नाम का व्यापारी वहां से चला गया। 
अपने व्यापारिक काम से निवृत्त होकर साधु नाम के वैश्य ने अपने घर लौट कर अपनी धर्मपत्नी लीलावती को श्री सत्यनारायण भगवान की व्रत की संपूर्ण  विधि बदला कर उसने अपनी पत्नी से कहा कि जब हमें संतति को प्राप्त हो जाएगी तब हम भी भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करेंगे। इतना कहकर साधु नाम का वैश्य अपने काम में लग गया। 
भगवान की कृपा हुई और कुछ समय पश्चात ही उसे पुत्री रत्न की प्राप्ति हुई। वह पुत्री समय बीतने के साथ धीरे-धीरे बड़ी होने लगी।  साधु वैश्य की पत्नी ने अपने पति से कहा कि अब हमारी पुत्री धीरे-धीरे बड़ी हो रही है तो क्यों नहीं आप अपने उस संकल्प को पूरा कर रहे है  जो अपने व्रत को करने का नियम लिया था। साधु वैश्य ने अपनी पत्नी से कहा कि जब पुत्री का विवाह करेंगे उस समय व्रत कर लेंगे। यह कहकर वह अपनी पुत्री के लिए वर  ढूंढने के लिए निकल पड़ा और उसने अपने सेवको को वर ढूंढने के लिए जहां-जहां भेजना प्रारंभ कर दिया। 
साधु वैश्य की आज्ञा पाकर उसके सेवक कांचन नामक नगर से एक वणिक के पुत्र को साधु की पुत्री के योग्य समझ कर अपने साथ ले आए। उस वणिक के पुत्र को देख कर उसे सुशील और गुणवान समझकर साधु वैश्य ने अपनी जाति के बुद्धिजीवी लोगों के साथ विचार-विमर्श कर उस वणिक के पुत्र से अपनी पुत्री के विवाह संपन्न किया। 
उस राज्य के राजा चंद्रकेतु थे। एक समय घटना घटी की कुछ चोर राजा चंद्रकेतु का स्वर्ण चुरा कर भाग रहे थे और भागते-भागते चोर उसी स्थान पर जा पहुंचे जहां पर दोनों वणिक पुत्र रह रहे थे। घबराए हुए चोर चोरी का सारा सामान वणिक पुत्रों के आश्रय निवास पर छोड़कर भाग गए और थोड़ी देर में राजा के सैनिक वणिक पुत्रों के आश्रय निवास पर आ गए। उन्होंने राजा का धन और वणिक पुत्रों को एक साथ देखा और वह बड़े हर्षोल्लास के साथ चिल्लाते हुए महाराज चंद्रकेतु के पास चले गए कि हमने दोनों चोरों को पकड़ लिया है। 
यह सब कुछ भगवान की माया थी क्योंकि उस वैश्य ने संकल्पित होने के पश्चात भी भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत नहीं किया था। यही कारण था कि उसके निर्दोष होने पर भी राजाचंद्र केतु ने उन दोनों की एक बात न सुनी और उन्हें कारागार में डाल दिया। 
उधर उस वैश्य की पत्नी लीलावती की हालत भी बुरी हो चुकी थी। वह दाने-दाने के लिए मोहताज हो चुकी थी। भूख प्यास से व्याकुल वह इधर-उधर भटकती रहती थी। यही हाल  की बेटी कलावती का भी था। एक दिन भटकते भटकते वह एक ब्राह्मण के घर में गई जहां सत्यनारायण भगवान की पूजा हो रही थी। उस पूजा को देख सुनकर, उस व्रत की कहानी को सुनकर उसने प्रसाद ग्रहण किया और अपने घर आकर अपनी माता से उस व्रत की संपूर्ण विधि बतला कर कहा कि हमें भी सत्यनारायण भगवन का व्रत करना चाहिए। इससे हमारे समस्त कष्ट दूर होंगे। 
उस कन्या कलावती की बात को सुनकर उसकी माता लीलावती के हृदय में भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करने की इच्छा जागृत हुई और उस जागृति के कारण मां बेटी दोनों ने मिलकर बंधु बांधव सहित भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करने का संकल्प लेते हुए उस व्रत को किया और भगवान से प्रार्थना की कि हे प्रभु आप मेरे पति और मेरे जमाता दोनों के समस्त अपराधों को क्षमा करें और उन दोनों को शीघ्र अति शीघ्र घर वापस भेजने की कृपा करें। 
भगवान श्री सत्यनारायण कलावती और लीलावती की आस्था और उनके व्रत से संतुष्ट हुए। उन्होंने राजा चंद्रकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि उन वणिको को तत्काल प्रभाव से छोड़ दो और उनका जो धन तुमने लिया है वह समस्त धन भी उनको लौटा दो। उनको तत्काल कारागार से मुक्त कर दो क्योंकि यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं तुम्हारे समस्त धन परिवार सहित तुम्हारा सर्वनाश कर दूंगा। भगवान के ऐसे वचन सुनकर राजा चंद्रकेतु डर गए और उन्होंने तत्काल ही उनको  मुक्त कर उनका सारा धन उन्हें लौटा दिया।
राजा चंद्रकेतु ने क्षमा याचना करते हुए उन दोनों वणिको से कहा कि प्रारब्ध वश आप दोनों को यह महान दुख सहना पड़ा। उसके लिए आप हमें क्षमा करें। अब कोई भय वाली बात नहीं है। आप दोनों सदा-सदा के लिए मुक्त है। आपका जो धन मैंने लिया मैं उसे दोगुना करके आपको वापस लौटा रहा हूं। मेरी भूल अपराध को क्षमा कीजिएगा और अब आप सब अपने घर को वापस लौट सकते हैं। ऐसा सुनकर वे दोनों वणिक पुत्र वहां से लौट पड़े। 

सत्यनारायण कथा का चौथा अध्याय

श्रीसूत जी महाराज बोलते हैं कि साधु बनिया  मंगलाचरण कर अनेकों ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देकर अपने घर की ओर प्रस्थान करने के लिए अपनी नाव में सवार होता है। उसी क्षण भगवान सत्यदेव के हृदय में साधु बनिए की परीक्षा लेने की बात आती है कि वास्तव में उसके मन में सत्य है या नहीं। तब भगवान एक डंडी ब्राह्मण का वेश धारण कर साधु बनिए के समीप पहुंचते हैं और उससे पूछते हैं कि हे बनिया तुम्हारी नाव में क्या भरा है। साधु बनिया और उसका दामाद उस दंडी  ब्राह्मण को देखकर उसका उपहास उड़ाते हुए बोलते है की अरे दंडी क्या करोगे जान कर? क्या तुम्हारे मन में कुछ द्रव्य लेने की इच्छा है? मेरी नाव में तो केवल लता और पत्ते आदि भरे हैं। उसकी इन बातों को सुनकर दंडी वेश धारी भगवान क्रोधित हो गए और उन्होंने श्राप से वचन देते हुए बोला तथास्तु जैसा तुमने कहा वैसा ही हो जाए। 
ऐसा कहकर दंडी भगवान उसकी नावसे कुछ दूर जाकर समुद्र के किनारे पर बैठ गए। साधु बनिया अपने दामाद के साथ शौच आदि से निवृत्त होकर जब वापस आया तब वः अपनी नाव की तरफ आया। उसने देखा कि उसकी नाव समुद्र के जल से थोड़ी ऊपर उठी हुई है। जब उसने नाव में चढ़कर देखा तो उसने देखा कि उसकी नाव में उसका सारा धन गायब है और उसके धन की जगह केवल लता और पत्ते ही भरे हैं। अपनी इस दुर्दशा को देखकर साधु मूर्छित हो गया। दामाद बुद्धिमान था। साधु बनिए के दामाद ने अपने ससुर से कहा कि आप चिंता ना करें। यह सब कुछ दंडी ब्राह्मण के श्राप का ही परिणाम है। हमने उनसे असत्य बोला जिसके कारण उनके क्रोध से हमारी ये दुर्दशा हो गयी है। अब वे ही हमारा कल्याण कर सकते हैं। हम दोनों को उन्हीं की शरण में जाना चाहिए। ऐसा कहकर वे दोनों दंडी  ब्राह्मण की तरफ चले गए। 
उन्होंने ब्राह्मण को प्रणाम कर उनके चरणों में गिर पड़े। उन्होंने क्षमा मांगी और कहा की हे दंडी हमने आपके सामने असत्य भाषण रूपी अपराध किया जिसका दंड आपने हमें दे दिया। हमें क्षमा करें। हमारे अपराध क्षमा करें। तब दंडी भगवान ने कहा कि हे मूर्ख रोने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि समय-समय पर मेरी पूजा की अवहेलना करने के कारण ही तुमने मेरी ही आज्ञा से अपार दुख को सहन किया है परंतु फिर भी तुम्हारे नहीं खुले। भगवान के वचन सुनकर साधु ने बोला कि हे भगवान आपकी माया ही हम प्राणियों को मोहित कर लेती है। आपकी माया से तो ब्रह्मा देवता भी नहीं बचे। वे भी आपकी माया के अधीन होकर आपको समझ नहीं पाते तो हम जैसे साधारण मनुष्य की तो बात ही कहां है। हम जैसे मनुष्य का तो हृदय हर पल इधर-उधर घूमकर चंचल स्वभाव के कारण घूमता रहता है और भगवान को नहीं पहचान पाता। उसकी माया को नहीं जान पाता। उनकी महिमा को नहीं जान पाता। इसलिए हम साधारण मनुष्य को अपनी शरण में जानकर हमारे अपराधों को क्षमा करें। हमें अपनी माया से ग्रसित जानकार आप हमपर कृपा करें। 
हे नाथ आप प्रसन्न हो जाइए। मैं यथाशक्ति अपनी सामर्थ्य अनुसार आपका व्रत अवश्य करूंगा। आप मेरे अपराधों को क्षमा कर मुझ पर अपनी कृपा दृष्टि बनाइए। साधु बनिया की भक्ति युक्त वाणी सुनकर भगवान सत्यदेव प्रसन्न हो गए और उन्होंने साधु को अभीष्ट वरदान देकर वहां से गमन किया और देखते ही देखते भगवान अंतर्ध्यान हो गए। 
साधु बनिया अपने दामाद वणिकपुत्र को साथ में लेकर जब आपने नाव पर वापस चढ़ा तो उसने अपनी नाव को धन-धान्य से पुनः सुसज्जित पाया और वह अपने घर की ओर प्रस्थान करने लगा। समुद्र में काफी दूर जाने के बाद उसे अपना नगरी रत्नपुरी दिखाई पड़ने लगी। साधु बनिए ने अपने दामाद से कहा वह देखो मेरी रत्नपुरी नगरी नजर आ रही है। उसने तत्काल अपने सेवको को अपने आने की सूचना देने के लिए अपने घर की ओर रवाना कर दिया। 
उस सेवक रूपी दूत ने नगर में जाकर साधु वैश्य की पत्नी लीलावती को सूचना दी और कहा किसा सेठ जी अपने दामाद के साथ नगर की आंतरिक सीमा तक पहुंच चुके हैं। वे बहुत सा धन-धान्य लेकर आप सब के पास आ रहे हैं। यह सुखद समाचार लीलावती ने अपनी पुत्री कलावती को सुनाया। वे दोनों ही इस समय भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत कर रही थी। दोनों भगवान का व्रत कर के अत्यंत प्रसन्न हुई क्योंकि भगवान के व्रत के प्रताप से ही उन्हें ये सुखद समाचार सुनने को प्राप्त हुआ था। 
लीलावती ने अपनी पुत्री कलावती से कहा कि पुत्री मैं तुम्हारे पिता को देखने जा रही हूं। तुम भी अपनी पूजा अर्चना को संपन्न करके शीघ्र आ जाना। लीलावती के जाने के बाद हर्ष उल्लास के कारण कलावती भी भगवान की पूजा संपन्न करके भगवान श्री सत्यनारायण का प्रसाद ग्रहण किए बिना ही अपने पति और पिता को देखने के लिए अपने घर से चल पड़ी। उनके इस कर्म के कारण भगवान सत्यदेव रुष्ट हो गए और उन्होंने कलावती के पति को उसकी नाव के साथ ही अदृश्य रूप में डुबो दिया। भगवान की लीला को कोई समझ ना सका क्योंकि जब लीलावती और उसकी पुत्री समुद्र के तट पर पहुंचे तब वहां पर केवल साधु वैश्य ही खड़ा था। ना नाव थी और ना ही उसका दामाद था। अपने पति को ना देख कर कलावती बहुत दुखी हुई और साधु वैश्य, लीलावती और कलावती सोचने लगे कि जरूर कोई दैवीय प्रकोप है जिसके कारण यह घटना घटित हुई है। 
उन्होंने भगवान श्री सत्यनारायण से प्रार्थना की कि हे प्रभु हमारे अपराधों को क्षमा करें। हम अपनी सामर्थ्य अनुसार आपका व्रत पूजन अवश्य करेंगे। यह हमारा संकल्प है। उनके संकल्पित होते ही भगवान सत्यदेव प्रसन्न हो गए और तत्काल आकाशवाणी हुई के साधू तुम्हारी पुत्री ने सत्यनारायण व्रत को संपन्न करके उसका प्रसाद ग्रहण नहीं किया और उस प्रसाद की अवहेलना करते हुए अपने पति को देखने के लिए यहां आ गई। इसी कारण उसके पति का लोप हो गया है अर्थात उसका पति अपने समस्त धनसंपदा के साथ अदृश्य हो गया है। यदि तुम्हारी पुत्री वापस घर जाकर भगवान सत्यदेव के प्रसाद को ग्रहण करेगी तो निश्चित ही उसे उसका पति प्राप्त हो जाएगा। ऐसा सुनकर साधु वैश्य की पुत्री तत्काल भागती हुई अपने घर वापस गई। भगवान सत्यदेव से क्षमा याचना करते हुवे उनके प्रसाद को ग्रहण किया और फिर वह अपने बंधु बांधव सहित समुद्र के तट पर पहुंची। तब उसने देखा कि उसका पति अपनी समस्त धन संपदा वैभव के साथ अपनी नाव के साथ वहां पर खड़ा है। 
सारे परिवार ने एकत्रित होकर भगवान श्री सत्यनारायण का धन्यवाद किया। सभी ने प्रसन्नचित होकर समस्त धन संपदा के साथ अपने घर की ओर प्रस्थान किया। अपने घर जाने के बाद प्रत्येक पूर्णिमा और संक्रांति के शुभ अवसर पर साधु वैश्य अपने सम्पूर्ण परिवार के साथ भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करने लगा। उस व्रत के प्रसाद को स्वयं ग्रहण करने के साथ ही साथ समस्त बंधु-बांधव में वितरित करने लगा।  इस व्रत के पुण्य प्रताप से साधु वैश्य व् समस्त परिवार ने इस लोक में अनंत सुखों को भोगा और अंत में सत्यपुर बैकुंठ लोक को प्राप्त कर लिया। 

सत्यनारायण कथा का पांचवा अध्याय 

श्रीसूत जी महाराज ने मुनि गणों से कहा कि हे ब्राह्मणों अब मैं आपको भगवान श्री सत्यनारायण की कथा का पांचवा अध्याय अर्थात पांचवीं कथा सुनाने जा रहा हूं। आप सब की भक्ति भगवान श्री सत्यनारायण के प्रति और भी ज्यादा गहरी और प्रगाढ़ हो जाएगी। एक समय की बात है जब तुंगध्वज नाम का एक राजा जो अपनी जनता को पुत्र समान पालता था शिकार खेलने के उद्देश्य से जंगल में गया और जंगल में शिकार खेलते खेलते वह एक वट वृक्ष के नीचे आ गया। वहां पर उसने बहुत से गोपगणों को भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करते हुए देखा परंतु अहंकार वश  न तो वह राजा उन गोपगणों के समीप ही गया और ना उसने भगवान श्री सत्यनारायण को प्रणाम ही किया और ना ही उन गोपगणों के द्वारा दिया गया प्रसाद ही ग्रहण किया। 
इन सब से भगवान सत्यनारायण राजा से कुपित हो गए और जिसका परिणाम यह हुआ कि राजा के धन-धन्य समेत उसके सौ पुत्रों का विनाश हो गया। अपना सब कुछ खोने के पश्चात राजा को आभास हुआ कि यह सब कुछ हो ना हो भगवान श्री सत्यनारायण के ही कोप का परिणाम है। अतः उसने मन में विचार किया कि अब मुझे भी भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करना चाहिए जिससे मैं भगवान से क्षमा मांग सकूं। इसके लिए मुझे वहां जाना चाहिए जहां पर भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत हो रहा हो।  
उसने अपने महल से बाहर निकल कर जब देखा तो उसे एक जगह गोपगण भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करते हुए दिखाई दिए। उसने उन सब के साथ बैठकर भगवान की कथा सुनी। भगवान के नाम पर सत्यनारायण व्रत किया और अंत में प्रसाद ग्रहण किया जिसके पुण्य फल से राजा फिर से धन-धान्य से संपन्न होकर पुत्रवान हो गया और उसके समस्त कष्ट दूर हो कर उसे समस्त सांसारिक सुखों की प्राप्ति हुई और अंत में उसे सत्यदेव के स्थान अर्थात बैकुंठ लोक प्राप्त हो गया। 
श्रीसूत जी महाराज कहते हैं कि जो भी प्राणी पूर्ण श्रद्धा युक्त होकर भगवान श्री सत्यनारायण की व्रत को करता है उसे अमोघ फल की प्राप्ति होती है। वह भय मुक्त हो जाता है। उसे भगवान की विशेष कृपा प्राप्त होती है जिसके कारण वह धन-धान्य से संपन्न होकर समस्त सांसारिक सुखों का स्वामी हो जाता है। दरिद्रता  उसको छूती भी नहीं। 
जो प्राणी सांसारिक बंधनों में बंदे हैं वह बंधनों से मुक्त हो जाते हैं। जो भय में हैं वह भयमुक्त हो जाते हैं। इसमें तनिक भी संदेह नहीं समझना चाहिए। भगवान श्री सत्यनारायण का पूजन और व्रत करने वाला प्राणी इस लोक में समस्त सुखों को भोग कर अंत में विष्णु लोक को प्राप्त होता ही होता है। 
श्रीसूत जी महाराज ने कहा कि कलयुग में तो सत्यनारायण भगवान ही समस्त प्राणियों के पापों का नाश करने वाले होंगे। भगवान विष्णु ही सत्यनारायण रूप में घर-घर में पूजे जाएंगे। अंत में श्रीसूत जी महाराज ने समस्त ऋषि गणों से कहा कि जो भी प्राणी भगवान श्री सत्यनारायण की पूजन व्रत कथा को पढता, सुनता या सुनाता है उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।  
अंत में सूत जी महाराज ने समस्त मुनि गणों से उन महानुभाव प्राणियों के अगले जन्म का वृतांत बताया जिन प्राणियों ने पिछले जन्म में भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत रखा था। उनमें सबसे पहले शतानंद नाम का ब्राह्मण था जिसने पूर्व जन्म में  सतनारायण का व्रत किया। जिसके प्रभाव से अगले जन्म में उसे सुदामा नाम का ब्राह्मण रूप प्राप्त हुआ जिसमें श्री कृष्ण की भक्ति करके उसने मोक्ष को प्राप्त किया। पूर्व जन्म का वह लकड़हारा भील अगले जन्म में गुहो का राजा हुआ जिसने भगवान श्री राम की सेवा करके मोक्ष को प्राप्त किया। उल्कामुख नाम का राजा ही अगले जन्म में महाराज दशरथ के रूप में जन्मा।  साधु नाम का वैश्य सत्यव्रत के प्रभाव से अगले जन्म में मोरध्वज नाम का राजा हुआ जिसमें आरे से चीर कर अपने पुत्र की आधी देह भगवान विष्णु को अर्पित करके मोक्ष प्राप्त किया। 

श्री सत्यनारायण व्रत कथा सम्पूर्ण

सत्यनारायण पूजन सामग्री | Satyanarayan Katha Samagri

भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा करते समय कुछ विशेष पूजन सामग्रियों का ध्यान रखना चाहिए जैसे भगवान को भोग में पंजीरी पसंद है। अतः भगवान को भुने हुए आटे की पंजीरी बनाकर भोग लगाना चाहिए। भगवान के पूजन स्थल को केले के पत्ते लगाकर पवित्र करना चाहिए। भगवान को पान, सुपारी, पंचगव्य, पंचामृत, कुमकुम, रोली, दुर्वा इत्यादि से भगवान की चौकी को सजा कर भगवान को प्रसन्न करने का प्रयास करना चाहिए। 
भगवान की पूजा में पंचामृत का विशेष महत्व है इसलिए भगवान को गंगाजल, केला, मधु, दूध, तुलसी पत्ता, मेवा इत्यादि मिलाकर जो पंचामृत तैयार होता है उसे भगवान को अर्पित करना चाहिए और फल मिष्ठान इत्यादि का भोग भी भगवान को लगाना चाहिए। 

सत्यनारायणकथा की पूजन विधि 

भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा करने वाले व्यक्ति को बंधु बांधव सहित पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ भगवान श्री सत्यनारायण का व्रत करना चाहिए। व्रत के प्रारंभ में उसे भगवान की प्रतिमा स्थापित करने वाले स्थान को गोबर से लिप कर पवित्र करना चाहिए और भगवान की प्रतिमा जहां पर स्थापित की गई हो उसके चारों कोनों में केले के पत्तों को लगाकर सकारात्मक ऊर्जा को भगवान के पूजन स्थल की तरफ आकर्षित करना चाहिए। 
प्रथम गणपति उपासना के बाद पंच  लोकपालों की पूजा करनी चाहिए ततपश्चात भगवान श्री सत्यनारायण की पूजा करनी चाहिए और फिर माता महालक्ष्मी की पूजा करते हुए अंत में देवा दी देव महादेव की पूजा-अर्चना करनी चाहिए। 
पूजा के बाद सभी देवों की आरती करें और चरणामृत लेकर प्रसाद वितरण करें। पूजा संपन्न होने के बाद ब्राह्मण को दान दक्षिणा देकर सर्वप्रथम उन्हें भोजन प्रसाद ग्रहण करवाकर उसके बाद प्रसाद स्वरूप भोजन को स्वयं ग्रहण करना चाहिए। 

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