ध्यान क्या है ? - परमानन्द गिरी जी महाराज | Dhyan kya hai - Parmanand Giri Ji Maharaj
ध्यान क्या है ? - परमानन्द गिरी जी महाराज | Dhyan kya hai - Parmanand Giri Ji Maharaj
साधना की दृस्टि से ध्यान सुगम है।ध्यान में किसी धारणा की आवश्यकता नहीं है। ध्यान में अपने संस्कारो की आवश्यकता नहीं है। ध्यान में हमें अपनी समझ लगाने और योजना बनाने की भी आवश्यकता नहीं है। ध्यान बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया है। अब मन में यह प्रश्न उठता है की ध्यान क्या है ?
ध्यान सावधानी है। ध्यान का तात्पर्य परमात्मा का स्मरण करना है अर्थात उस चैतन्य परम पिता परमात्मा ,साक्षी, उस परब्रह्म का स्मरंण करना है। जब ध्यान साधना के समय साधक के मन के भीतर न कोई द्वन्द हो न ख़याल हो , उस अवस्था को ही ध्यान की अवस्था कहा जाता है।
भीतर कोई भी चुनाव की स्तिथि न हो और यदि हो तो केवल साक्षित्व भाव मात्र। आप यू समझ सकते है की निर्द्वँदता की स्तिथि को ही परम ध्यान की स्तिथि कहते है। इस तथ्य को पूर्ण रूप से आप तभी समझ सकते है जब आप ध्यान करना आरम्भ कर देंगे। यहां मैंये भी बता देना उचित समझता हूँ की ध्यान और वेदांत एक दूसरे के पूरक है। जो साधक केवल सुनते है और कभी अंतर्मुखी होकर नहीं ध्यान नहीं करते उनको सुनने में तो आनंद आएगा किन्तु उनकी निष्ठां बहुत कठिनाई से बनेगी। यदि ऐसे साधक की निष्ठां बनेगी भी तो वो निष्ठां उसके अभिमान की घोतक होगी क्योकि उसके जीवन में अभी विवेक का उदय नहीं हुवा है। उसके मस्तिष्क में केवल शब्द संगृहीत हुवे है ज्ञान नहीं। अतः अब ये कहा जा सकता है की ब्रह्म ज्ञान की चर्चा को सुनने वाले साधक ध्यान अवश्य करें था ध्यान करने वाले साधक सुने अवश्य।
प्रारम्भ में तो आपको ध्यान में कुछ भी मिलता सा प्रतीत नहीं होगा परन्तु जब आपकी साधना जाएगी तब आपको स्पस्ट होगा की "ध्यान क्या है ?"
ॐ ॐ ॐ
नोट- ऊपर प्रस्तुत व्याख्यान स्वामी परमानन्द जी के प्रवचन और उनके द्वारा लिखित साहित्यो के आधार पर महाराज श्री की वाणी समझ कर आप सभी भक्तो के समक्ष रखा गया है।
भीतर कोई भी चुनाव की स्तिथि न हो और यदि हो तो केवल साक्षित्व भाव मात्र। आप यू समझ सकते है की निर्द्वँदता की स्तिथि को ही परम ध्यान की स्तिथि कहते है। इस तथ्य को पूर्ण रूप से आप तभी समझ सकते है जब आप ध्यान करना आरम्भ कर देंगे। यहां मैंये भी बता देना उचित समझता हूँ की ध्यान और वेदांत एक दूसरे के पूरक है। जो साधक केवल सुनते है और कभी अंतर्मुखी होकर नहीं ध्यान नहीं करते उनको सुनने में तो आनंद आएगा किन्तु उनकी निष्ठां बहुत कठिनाई से बनेगी। यदि ऐसे साधक की निष्ठां बनेगी भी तो वो निष्ठां उसके अभिमान की घोतक होगी क्योकि उसके जीवन में अभी विवेक का उदय नहीं हुवा है। उसके मस्तिष्क में केवल शब्द संगृहीत हुवे है ज्ञान नहीं। अतः अब ये कहा जा सकता है की ब्रह्म ज्ञान की चर्चा को सुनने वाले साधक ध्यान अवश्य करें था ध्यान करने वाले साधक सुने अवश्य।
प्रारम्भ में तो आपको ध्यान में कुछ भी मिलता सा प्रतीत नहीं होगा परन्तु जब आपकी साधना जाएगी तब आपको स्पस्ट होगा की "ध्यान क्या है ?"
ॐ ॐ ॐ
नोट- ऊपर प्रस्तुत व्याख्यान स्वामी परमानन्द जी के प्रवचन और उनके द्वारा लिखित साहित्यो के आधार पर महाराज श्री की वाणी समझ कर आप सभी भक्तो के समक्ष रखा गया है।
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